शीतल खुश होकर सातवें आसमान पर उड़ रही थी क्योंकि उसका रिश्ता मनपसंद जगह हुआ था। माँ-बाप का इकलौता खूबसूरत लड़का, शादीशुदा बहन, बड़े-बड़े घरों में रिश्तेदारियां, दुनिया के कई देशों में फैला हुआ व्यापार। राघव से रोज घंटों बात होती थी। हनीमून के लिए कहाँ जाना है वह भी पक्का हो चुका था। आखिरकार शादी का दिन भी आ गया। एक के बाद एक सारे कार्यक्रम होने लगे। फेरे के समय विदाई का सोचकर मम्मी-पापा और छोटू तीनों उदास थे। किसी की बेटी, किसी की बहन आज पराई होने वाली थी। शीतल का मन रुदाली हो रहा था पर साथ ही नए घर में जाने की व्याकुलता भी थी. फेरे भी निपट गए और विदा होकर दूल्हा-दुल्हन लंबी सी गाड़ी में बैठकर घर को चल दिए। मन उत्तेजना से भर उठा। बहुत से विचार आ रहे थे। ससुरालवालों का व्यवहार कैसा होगा? क्या मैं नए माहौल में ढल पाऊँगी?
बहुत बड़े घर में बड़े से दरवाजे से गाड़ी अंदर गई। पोर्च में दादीजी, सासुमाँ, ससुरजी, ननद, नन्दोई और बहुत से बच्चे इंतज़ार कर रहे थे। धीरे-धीरे गाड़ी चलाते हुए रमेश भैया, जो कि पिछले कई वर्षों से इस घर की गाड़ियां चला रहे थे, उन्होंने पोर्च में गाड़ी रोकी। राघव ने जैसे ही दरवाजा खोला तो सासुमाँ ने रुकने का इशारा किया।
– जसोदाबाई, थाली ले आओ, सासुमाँ बोलीं। तुरंत दो थालियां, जिनमें कंकू-हल्दी का हल्का गीला मिश्रण फैला हुआ था, बाई ले आई। सासुमाँ ने थालियां लेकर पहले शीतल को धीरे से उतरने को कहा। दरवाजा खोलकर जैसे ही पहला पैर बाहर आया, सासुमाँ ने उसके नीचे पहली थाली रख दी और दूसरा पैर निकालने का इशारा किया। सभी लोग दम साधे इस परंपरा के निर्वहन को देख रहे थे। शीतल ने दूसरा पैर जमीन की तरफ आगे बढ़ाया तो सासुमाँ ने दूसरी थाली पैर के नीचे रख दी।
तभी दादीमाँ ने सासुमाँ को बोला – सुषमा, याद कर मैं भी तुझे ऐसे ही घर में लेकर आई थी। आज इस घर को नई मालकिन मिल गई है। सब कुछ सिखाकर धीरे-धीरे इसको भी जवाबदारियां दे देना। शीतल का तीसरा कदम दहलीज पर हल्दी-कंकू की छाप छोड़ गया। चौथे कदम ने घर के अंदर छाप छोड़ी। पण्डितों का समूह मंत्रोच्चार करने लगा। ढोलियों ने जोरदार ताल छेड़ दी। गीत गाने वाली महिलाओं ने सुमंगल गीतों का गान किया। आतिशबाजी होने लगी। चारों ओर एक सुखद अहसास का अनुभव हो रहा था। इसे अधिकारों का हस्तांतरण कहेंगे? कोई सास इस प्रकार से अपने अधिकारों का परित्याग कर सकती थी? नव-नवेली दुल्हन को इतना सम्मान, सोच के बाहर की बात थी। दहलीज से लेकर घर के मंदिर तक इसी प्रकार पैरों के निशान बनते चले गए। ठाकुरजी के दर्शन करने के पश्चात् मुँह दिखाई की रस्म शुरू हुई। रिश्तेदारों से उपहार में मिली वस्तुओं का ढेर लग गया। सासूमाँ के निर्देश पर जसोदाबाई सारा सामान कमरे में ले गई।
रस्मों और परंपराओं के पालन की अंतिम कड़ी में दुल्हन को अपनी मनपसंद का कोई मीठा व्यंजन बनाकर सबको खिलाना था। ननद शीतल को किचन में ले गई। वहां एक बुजुर्ग से व्यक्ति थे जिन्हें सभी रामूकाका के नाम से संबोधित कर रहे थे। उन्होंने शीतल का बड़े स्नेह से अभिवादन किया। शीतल ने भी उनके पैर छूकर माहौल को आत्मीय बना दिया। बाद में पता चला कि रामूकाका दादी माँ के समय से काम कर रहे हैं।
रामूकाका ने पूछा –बहूरानी क्या बनाना चाहोगी?
-काका, मेवे वाली गुलाब-सिवैयां खीर बनाउंगी। मुझे ज्यादा फैट वाला दूध, शक्कर, सिवैयां, कतरे हुए काजू-बादाम, पिस्ता, अंजीर, मिल्कमेड का डब्बा, ताजे गुलाब के फूल और गुलाब का अर्क चाहिए। काका ने पलक झपकते ही सब कुछ हाजिर कर दिया। सबसे पहले दूध को ओटने के लिए रख दिया। कुछ समय बाद दूध में सिवैयां डालकर उसे उबलने तक छोड़ दिया. फिर शक्कर, थोड़ी केसर, गुलाब का अर्क और मिल्कमेड डालकर दूध को और उबाला। गैस बंद करके अंजीर के छोटे-छोटे टुकड़े डाल दिए। चारों दिशाओँ में केसर और गुलाब की खुशबू फैल गयी थी। कुछ ठंडी होने पर गुलाब-सिवैयां चाँदी की कटोरी में डाली। ऊपर से केसर का रेशा, काजू-बादाम, पिस्ता और गुलाब की पंखुड़ी डालकर खालिस सोने का वर्क लगाकर कटोरियाँ सजाई। चाँदी की थाली और उसमें छः कटोरियाँ रखकर शीतल किचन से निकली ही थी कि अचानक…..….. एक बिल्ली सामने से निकल गई। शीतल ठिठक कर रुक गई और समझ नहीं पा रही थी कि अब क्या करूँ।
ससुरजी उठकर आए और बोले – शीतल थाली मुझे दे दो, मैं ही सबको बाटूँगा। सबसे पहले दादीमाँ फिर सासुमाँ, ननद-नंदोईजी, राघव और आखरी में ससुरजी। सभी ने पहले स्वयं की चम्मच से शीतल को खिलाया और बाद में खुद ने खाया। तारीफों के पुल बंध गए। इतनी अच्छी गुलाब सिवैयां की खीर खाने के बाद दादीमाँ ससुरजी को बोली – बेटा, सही हाथों में घर की चाबी जा रही है, अब तुम्हारा भी तीर्थ करने का समय आ गया है. यह सुनकर एक जोरदार ठहाका लगा किन्तु शीतल की रूलाई फूट पड़ी और उसके मन के सारे भय दूर हो गए। माहौल अकल्पनीय था. रिश्तों में मिठास घुल गई थी.