Doctor Ajay Goyal

Ek Kahani

मै हूँ सैरन्ध्री

मानव जीवन के ज्ञात अज्ञात इतिहास में पांडवों की महारानी द्रोपदी को संसार की सर्वश्रेष्ठ सुंदरी माना गया है. पांडवों के बारह वर्ष के वनवास के पश्चात, अज्ञातवास के दौरान द्रोपदी को कुटिल नजरों से बचाए रखना बहुत कठिन कार्य था. द्रोपदी ने विराट नगर के महाराजा विराट की पत्नी सुदेष्णा की सेविका का दायित्व निभाया. इस जिम्मेदारी का निर्वहन करने के लिए महल से निकलने की जरुरत नहीं थी और राज खुलने का भय भी नहीं था. उस समय द्रोपदी अपने संपूर्ण लावण्य पर थी. इसी अज्ञातवास के समय द्रोपदी को सैरन्ध्री का नाम दिया गया.


खुशियों की बहार आई

नेहा ने कंप्यूटर साइंस में बी.ई. करके कॉलेज में प्रथम स्थान प्राप्त किया. उसके पापा ने शादी – सम्बन्ध के बारे में बात की तो उसने बोला कि कुछ समय जॉब करना है. पापा को ये बात समझ में आई और जॉब करने की इजाजत दे दी. एक अंतर्राष्ट्रीय व्यापार करने वाली सोफ्टवेअर कंपनी में उसकी जॉब लग गयी. दो – ढाई साल कैसे गुजर गए पता ही नहीं पड़ा. फिर एक दिन पापा ने पूछा – नेहा, अब तो तेरे हाथ पीले कर दूँ? उसका मन अभी भी शादी के लिए राजी नहीं था. पर उसने अनमने भाव से हाँ कर दी.

महेशजी ने बी.ई. पास, आशीष नाम का लड़का, जो कि सरकारी नौकरी में ऊँचे पद पर था, उन्हें नेहा को देखने के लिए आमंत्रित किया. खूब सारी तैयारियां की गयी. घर सजाया गया. बैठक में खुशबु उड़ेल दी गयी. ढेर सारे व्यंजन बनाये गए. दुपहर लगभग १२.१५ बजे लड़का, सपरिवार आया. थोड़ी देर बाद नेहा सज-संवर कर आई. वो बहुत खुबसूरत लग रही थी. चाय पानी के बाद मेहमान बोल कर गये की दो रोज बाद जवाब देवेंगे. महेशजी को पता चला कि लड़के ने ना कर दी है.

खैर, कोई बात नहीं. महेशजी ने दूसरी जगह बात चलाई. इस बार भी लड़का बी.ई. पास था, और प्राइवेट कंपनी में जॉब करता था. वो और उसके घरवाले नेहा को देखने आये. आदर सत्कार संपूर्ण था. उम्मीदे सभी को थीं. पर कहते हैं ना कि ईश्वर जोड़े ऊपर से ही बना कर भेजता है. उन्हें नेहा पसंद नहीं आई. महेशजी थोड़े से निराश हो गए थे.

एक दिन दूर के रिश्ते की मामीजी घर आईं. घर के ठन्डे माहौल को उन्होंने भांप लिया. नेहा की मम्मी से उन्होंने पूरी जानकारी ली और वो बोली ‘इत्ती सी बात, कल सम्बन्ध करवा देती हूँ, वो भी मनपसंद लड़के के साथ’. घर के सभी लोग चोंक गए और मामीजी को घूरकर देखने लगे. मामीजी के पास ऐसी कौनसी जादू की छड़ी है जो घुमाते ही रिश्ते करा देती है?

मामीजी बोलीं की जिस दिन लड़के वाले देखने आयें उस दिन लड़की को सैरन्ध्री की साड़ी पहनाओ. सैरन्ध्री की साड़ियों में साक्षात् द्रौपदीजी का वास है. पहनने वाली का आत्म विश्वास बढ़ जाता है और वो बला की खुबसूरत लगने लगती है. इनके यहाँ हर बजट की हर वैरायटी की, लेटेस्ट कलेक्शन की सैकड़ों डिज़ाइनर साड़ियाँ हैं. साड़ियों के अलावा, ब्राइडल साड़ी – सूट, लहंगा-चुन्नी, गाउन – इंडो वेस्टर्न, सब कुछ मिलता है. और हाँ ब्लाउज भी अपने पसंद का सिल कर देते है. चाहो तो आधी रात को भी मोबाइल पर पसंद करके आर्डर कर दो. ये साड़ियाँ www.sairandhri.com पर या उनके अग्रवाल नगर, इंदौर, शो रूम पर उपलब्ध रहती है.

नेहा की मम्मी आश्चर्य से बोली – अरे बाप रे, ऐसा क्या!!!!. हमें तो मालूम ही नहीं था. महेशजी बोले कि कल ही जाकर अपनी मन-पसंद साड़ियाँ लेकर आते है. तभी समझदार नेहा बोली कि कल तक क्यों रुकें? अभी मोबाइल पर चेक कर लेते हैं.

महेशजी अगले ही दिन से दुगुने उत्साह से एक नया रिश्ता खोजने में लग गए. उनके ही परिचित शहर के जाने-मने उध्योगपति प्रेमचंद जी गुप्ता का इकलोता बेटा धीरज शादी लायक है. बस, उनके यहाँ जा पहुंचे और नेहा को देखने के लिए आग्रह किया. गुप्ताजी नेहा को देखने सपरिवार पहुंचे. नेहा सैरन्ध्री की साड़ी पहन कर बला की खुबसूरत लग रही थी.

शर्माती हुई नेहा चाय लेकर ड्राइंग रूम में आई. चारों तरफ जैसे सन्नाटा छा गया. मानो हवा ने चलना रोक दिया. लड़का तो लड़का, लड़के के पापा और अन्य परिजन सब नेहा की खूबसूरती के कायल हो गए. उन्होंने नेहा को पसंद करके हाँ कर दी. महेशजी ने उसी मिठाई बुलवाई और लड़के का तिलक करके रोके की रस्म कर दी. चट मंगनी और १५ दिन में पट ब्याह करके नेहा और धीरज का घर बस गया. चारो तरफ सैरन्ध्री की धूम मच गयी. जिसे देखो वो सैरन्धी के शो रूम पर साड़ियों के लिए दौड़ पड़ा.


छलिया

महाभारत के अंतिम युद्ध का आज छटवां दिन था. चारों और मार-काट मची थी. पांडवों की सेना ने कोरवों की सेना को भयानक क्षति पहुँचाई थी. भयानक रूप से आगबबुला होते हुए दुर्योधन कोरवों के सेनापति भीष्म पितामह के शिविर आ पहुंचा. उसने क्रोधित होते हुए पूछा -पितामह स्पष्ट कीजिये कि आप किस और से लड़ाई लड़ रहें हैं? कोरवों के मुकाबले पांडवों को बहुत कम क्षति पहुँची है. मेरे बहुत से भाई मारे जा चुके हैं और आज भी सभी पांचो पांडव जिन्दा हैं. आप उन्हें मारना चाहते हैं या नहीं? भीष्म पितामह ने आहत होकर कहा – दुर्योधन…. ऐसा नहीं है. पर ध्यान रखो कि वो धर्म की लड़ाई लड़ रहें हैं और में अधर्म का साथ दे रहा हूँ. फिर भी ये पक्का है कि कल शाम का सूरज ये पांचो पांडव नहीं देखेंगे. आज रात की पूजा में मै ५ बाण अभिमंत्रित करके सभी पाँचों पांडवों का संहार कर दूंगा. दुर्योधन ख़ुशी के अतिरेक में अपने शिविर लौट आया.

गुप्तचरों से पांडवों को इस योजना की जानकारी मिलने पर उनके शिविर में घबराहट फेल गयी. सभासदों ने एकमत से भीष्म पितामह की रात्रिकालीन पूजा में ही विघ्न डालने का सुझाव दिया जिसे युधिष्टिर ने अधर्म सम्मत बताते हुए अस्वीकार कर दिया. घोर निराशा फेल गयी. कल क्या होगा?

रात्रि के अंतिम प्रहर के खत्म होने के कुछ समय पहले एक पुरुष और एक स्त्री पांडवों के शिविर से छदम वेश में निकले. स्त्री की पादुकाएँ आवाज कर रही थी तो पुरुष ने पादुकाएँ हाथ में लेकर अपने उत्तरीय में छिपा लिया. वे दबे पाव कोरवों के शिविर क्षेत्र में दाखिल होकर भीष्म पितामह के शिविर पर पहुंचे. पुरुष ने स्त्री को कुछ समझा कर पितामह के शिविर के अन्दर भेज दिया. पितामह का पूजन चल रहा था. स्त्री ने साड़ी के पल्लू का घूँघट बनाकर चेहरा ढँक लिया और धीरे से पितामह के पीछे जाकर बैठ गयी.

पूजन समाप्त करके जैसे ही पितामह खड़े हुए, वह स्त्री पितामह के चरणों में झुक गई और आशीर्वाद माँगा.

पितामह बोले –सोभाग्यावती भवः.

स्त्री ने तुरंत अपना घूँघट हटाया और कहा –तात, अपने आशीर्वचन की रक्षा कीजियेगा.

पितामह ने चोंकते हुए स्त्री को देखा और कहा –अरे… द्रौपदी तुम !!!! तुम…. सैरन्ध्री !!!!

पितामह ने अपना सर पकड़ लिया और बोले – द्रोपदी तुमने मेरी पूजा का उद्देश्य ही बदल दिया. पर इतनी रात गए अकेली आई हो?

‘नहीं तात, मेरे साथ भैया भी हैं’ -द्रौपदी बोली

‘कौन धृष्टधुम्न?’ – तात ने पूछा

द्रौपदी बोली – नहीं, द्वारकाधीश श्री कृष्ण मेरे साथ आए हैं.

अच्छा, तो ये ही है वो छलिया. इस योजना का सूत्रधार. पितामह तुरंत बाहर आए और बोले -हे योगेश्वर आप बाहर क्यों खड़े हैं? आप भी अन्दर आ जाते. पितामह ने कृष्ण को गले लगा लिया.

उन्होंने उसी समय पाँचों अभिमंत्रित बाणों को तोड़ दिया और द्रौपदी को निश्चिन्त होकर जाने का आदेश दिया.

द्रौपदी ने साड़ी के घूँघट में चेहरा छिपाकर पितामह के शिविर में इस घटना को जो मोड़ दिया वो अविस्मर्णीय है. ये है सैरन्ध्री का आत्मविश्वास. सैरन्ध्री की साड़ियों में द्रौपदी का वास है. इनको पहनने से धर्मसम्मत कार्य निर्विघ्न पूर्ण होते है. स्त्री का सुहाग हमेशा रक्षित रहता है.


सिलाई मशीन एक सहारा

अगस्त 1947,  विभाजन का समय और लाहौर शहर। पैसे वाले हिंदुओं की एक बस्ती। चारों और से जोर-जोर से समूहों में चीखने चिल्लाने की आवाजें आ रही थी – मारो, मारो। अल्लाहो-अकबर। बीच-बीच में हर हर महादेव का घोष भी सुनाई दे जाता था। बच्चे माँ की गोद में दुबके पड़े थे। माँओं की सिसकियाँ रोके नहीं रुकती थी। पुरुष वर्ग को तो जैसे काठ मार गया था। कुछ भी सूझ नहीं पड़ रहा था। आँसू पत्थर बन कर आँखों के पीछे दुबके पड़े थे।

हे ईश्वर, ये कैसी परिस्थिति है। पीढ़ियाँ निकल गईं, इसी लाहौर में। अब ये ही बेगाना हो गया है? हम हिन्दू हैं तो काफिर हो गए। अभी कलमा पढ़ लें तो वापस इंसान हो जाएंगे। हे ऊपरवाले ये कैसा तेरा इंसाफ है? जग्गी उसकी माँ की गोद में सो रहा था। जग्गी की माँ लाजो,  अचानक कुछ याद करके रोने लगी।

ओए, चुप कर। जग्गी के पिता – भगतजी, लाजो पर चिल्लाये। पहले ही तो कुछ सूझ नहीं पड़ रहा है और तू रोए जा रही है। तभी, भगतजी की भी रुलाई फुट पड़ी।  -लाजो, हम यहाँ से कैसे निकलेंगे? बॉर्डर तक पहुचेंगे या नहीं, आगे कहाँ जाएंगे?

लाजो पास के ही लाड़काना से ब्याह कर आई थी, पिताजी बड़े व्यापारी थे और ससुर का लंबा चौड़ा कारोबार था। भगतजी ने अपने पिता का कारोबार सँभाल कर व्यापार को नई ऊँचाइयाँ दी थी। लाजो ने पति की आँखों में पहली बार लाचारी के आँसू देखे। अपने आप को सम्हालकर वो बोली -लालाजी, चिंता ना करो, अच्छे से जाएंगे और अच्छे ही पहुँचेंगे। इंदौर में दूर के रिश्ते की मूली भुवा रहती हैं। वहीँ चलेंगे। ईश्वर जो करेगा अच्छा ही करेगा। 

तभी आवाज आई – भगतजी… जल्दी चलो। बॉर्डर तक जाने के लिए गाड़ी की व्यवस्था हो गई है। सिर्फ जरुरी सामान ले लो।

बसी बसाई गृहस्थी उजड़ रही थी। अचानक लाजो धीरे से बोली -लालाजी, बुरा ना मानो तो एक बात कहूँ? 
हाँ जल्दी बोल -भगतजी ने उखड़कर जवाब दिया।
-मेरी हाथ वाली सिलाई मशीन जरूर साथ में ले लेंगे। वक्त पड़े काम आएगी। लाजो बोली।

भगतजी के कानों में तो जैसे सीसा घुल गया। उनकी रूलाई फट् पड़ी। फुट-फुट के रोने लगे और मन ही मन कहा -जिन हाथों ने आज तक सुई नहीं पकड़ी और वो लोगों के कपडे सिलने को तैयार है? हे भगवान, ये कैसा न्याय है?

लाजो बोली -लालाजी, अपने आप को सम्हालो, आप ही दुःखी होंगे तो हमारा कौन ध्यान रखेगा?
पति, बच्चों, थोड़े गृहस्थी के सामान और सिलाई मशीन के साथ उन्होंने बॉर्डर पार की। रेलगाड़ी में बैठकर इंदौर तक का सफर बहुत कठिनाई से काटा। ना पीने को पानी और ना ही खाने का सामान। सिर्फ थोड़ा सा सत्तू, चने और नारियल। भगतजी और लाजो ने बच्चों की खातिर अपने पेट पर कपड़े बांध लिए थे। दोनों के मन में भविष्य के प्रति अज़ीब सी घबराहट थी।

इंदौर में मूली भुआ के अनचाहे मेहमान बने। लाजो की दूरदर्शिता काम आई। सिलाई मशीन घर गृहीस्थि का बड़ा सहारा बनी। भगतजी दिन में मार्केट में घूमकर कपड़े सिलने के आर्डर ले आते और लाजो रात-दिन काम करके, कपड़े सिलकर भगतजी को दे देती। काम चल पड़ा। आर्डर पुरे नहीं हो पा रहे थे भगतजी ने लाजो को पैर से चलने वाली मशीन लाकर दे दी।

धीरे धीरे लाजो भी थकने लगी थी। भगतजी ने उसकी मदद के लिए, पाकिस्तान से आए दूसरे परिवारों की महिलाओं को भी जोड़ लिया। सभी की लगन और उत्साह से धंधा जम गया। जग्गी जो अब जगदीश हो गए थे उन्होंने भी लाजो और भगतजी की मदद करते हुए पूरा व्यापार सम्हाल लिया।

दूरदर्शिता, लगनशीलता, एक सिलाई मशीन और कठिनाइयों से जूझने का जज़्बा व्यक्ति को मनचाही ऊंचाइयों तक पहुँचा सकता है।

(ये एक वास्तविक घटना है। भगतजी परलोक जा चुके हैं, लाजोजी 92 वर्ष की उम्र में कनाडा में जगदीश के बेटे अनिल के साथ रहते हुए अपनी पड़पोती लल्ली के साथ दिन भर खेलतीं है और पूरी स्वस्थ हैं। उनका इंदौर आना जाना लगा रहता है। लाजो- भगत का लगाया हुआ सिलाई मशीन का काम, आज एक बड़े उद्योग में बदलकर लगभग पाँच हजार परिवारों का सहारा है)


रिश्तों में मिठास

शीतल खुश होकर सातवें आसमान पर उड़ रही थी क्योंकि उसका रिश्ता मनपसंद जगह हुआ था। माँ-बाप का इकलौता खूबसूरत लड़का, शादीशुदा बहन, बड़े-बड़े घरों में रिश्तेदारियां, दुनिया के कई देशों में फैला हुआ व्यापार। राघव से रोज घंटों बात होती थी। हनीमून के लिए कहाँ जाना है वह भी पक्का हो चुका था। आखिरकार शादी का दिन भी आ गया। एक के बाद एक सारे कार्यक्रम होने लगे। फेरे के समय विदाई का सोचकर मम्मी-पापा और छोटू तीनों उदास थे। किसी की बेटी, किसी की बहन आज पराई होने वाली थी। शीतल का मन रुदाली हो रहा था पर साथ ही नए घर में जाने की व्याकुलता भी थी. फेरे भी निपट गए और विदा होकर दूल्हा-दुल्हन लंबी सी गाड़ी में बैठकर घर को चल दिए। मन उत्तेजना से भर उठा। बहुत से विचार आ रहे थे। ससुरालवालों का व्यवहार कैसा होगा? क्या मैं नए माहौल में ढल पाऊँगी?

बहुत बड़े घर में बड़े से दरवाजे से गाड़ी अंदर गई। पोर्च में दादीजी, सासुमाँ, ससुरजी, ननद, नन्दोई और बहुत से बच्चे इंतज़ार कर रहे थे। धीरे-धीरे गाड़ी चलाते हुए रमेश भैया, जो कि पिछले कई वर्षों से इस घर की गाड़ियां चला रहे थे, उन्होंने पोर्च में गाड़ी रोकी। राघव ने जैसे ही दरवाजा खोला तो सासुमाँ ने रुकने का इशारा किया। 

– जसोदाबाई, थाली ले आओ, सासुमाँ बोलीं। तुरंत दो थालियां, जिनमें कंकू-हल्दी का हल्का गीला मिश्रण फैला हुआ था, बाई ले आई। सासुमाँ ने थालियां लेकर पहले शीतल को धीरे से उतरने को कहा। दरवाजा खोलकर जैसे ही पहला पैर बाहर आया, सासुमाँ ने उसके नीचे पहली थाली रख दी और दूसरा पैर निकालने का इशारा किया। सभी लोग दम साधे इस परंपरा के निर्वहन को देख रहे थे। शीतल ने दूसरा पैर जमीन की तरफ आगे बढ़ाया तो सासुमाँ ने दूसरी थाली पैर के नीचे रख दी। 

तभी दादीमाँ ने सासुमाँ को बोला – सुषमा, याद कर मैं भी तुझे ऐसे ही घर में लेकर आई थी। आज इस घर को नई मालकिन मिल गई है। सब कुछ सिखाकर धीरे-धीरे इसको भी जवाबदारियां दे देना। शीतल का तीसरा कदम दहलीज पर हल्दी-कंकू की छाप छोड़ गया। चौथे कदम ने घर के अंदर छाप छोड़ी। पण्डितों का समूह मंत्रोच्चार करने लगा। ढोलियों ने जोरदार ताल छेड़ दी। गीत गाने वाली महिलाओं ने सुमंगल गीतों का गान किया। आतिशबाजी होने लगी। चारों ओर एक सुखद अहसास का अनुभव हो रहा था। इसे अधिकारों का हस्तांतरण कहेंगे? कोई सास इस प्रकार से अपने अधिकारों का परित्याग कर सकती थी? नव-नवेली दुल्हन को इतना सम्मान, सोच के बाहर की बात थी। दहलीज से लेकर घर के मंदिर तक इसी प्रकार पैरों के निशान बनते चले गए। ठाकुरजी के दर्शन करने के पश्चात् मुँह दिखाई की रस्म शुरू हुई। रिश्तेदारों से उपहार में मिली वस्तुओं का ढेर लग गया। सासूमाँ के निर्देश पर जसोदाबाई सारा सामान कमरे में ले गई

रस्मों और परंपराओं के पालन की अंतिम कड़ी में दुल्हन को अपनी मनपसंद का कोई मीठा व्यंजन बनाकर सबको खिलाना था। ननद शीतल को किचन में ले गई। वहां एक बुजुर्ग से व्यक्ति थे जिन्हें सभी रामूकाका के नाम से संबोधित कर रहे थे। उन्होंने शीतल का बड़े स्नेह से अभिवादन किया। शीतल ने भी उनके पैर छूकर माहौल को आत्मीय बना दिया। बाद में पता चला कि रामूकाका दादी माँ के समय से काम कर रहे हैं।

रामूकाका ने पूछा –बहूरानी क्या बनाना चाहोगी?

-काका, मेवे वाली गुलाब-सिवैयां खीर बनाउंगी। मुझे ज्यादा फैट वाला दूध, शक्कर, सिवैयां, कतरे हुए काजू-बादाम, पिस्ता, अंजीर, मिल्कमेड का डब्बा, ताजे गुलाब के फूल और गुलाब का अर्क चाहिए। काका ने पलक झपकते ही सब कुछ हाजिर कर दिया। सबसे पहले दूध को ओटने के लिए रख दिया। कुछ समय बाद दूध में सिवैयां डालकर उसे उबलने तक छोड़ दिया. फिर शक्कर, थोड़ी केसर, गुलाब का अर्क और मिल्कमेड डालकर दूध को और उबाला। गैस बंद करके अंजीर के छोटे-छोटे टुकड़े डाल दिए। चारों दिशाओँ में केसर और गुलाब की खुशबू फैल गयी थी। कुछ ठंडी होने पर गुलाब-सिवैयां चाँदी की कटोरी में डाली। ऊपर से केसर का रेशा, काजू-बादाम, पिस्ता और गुलाब की पंखुड़ी डालकर खालिस सोने का वर्क लगाकर कटोरियाँ सजाई। चाँदी की थाली और उसमें छः कटोरियाँ रखकर शीतल किचन से निकली ही थी कि अचानक…..….. एक बिल्ली सामने से निकल गई। शीतल ठिठक कर रुक गई और समझ नहीं पा रही थी कि अब क्या करूँ। 


ससुरजी उठकर आए और बोले – शीतल थाली मुझे दे दो,  मैं ही सबको बाटूँगा। सबसे पहले दादीमाँ फिर सासुमाँ, ननद-नंदोईजी, राघव और आखरी में ससुरजी। सभी ने पहले स्वयं की चम्मच से शीतल को खिलाया और बाद में खुद ने खाया। तारीफों के पुल बंध गए। इतनी अच्छी गुलाब सिवैयां की खीर खाने के बाद दादीमाँ ससुरजी को बोली – बेटा, सही हाथों में घर की चाबी जा रही है, अब तुम्हारा भी तीर्थ करने का समय आ गया है. यह सुनकर एक जोरदार ठहाका लगा किन्तु शीतल की रूलाई फूट पड़ी और उसके मन के सारे भय दूर हो गए। माहौल अकल्पनीय था. रिश्तों में मिठास घुल गई थी.


अलाव की अग्नि और फेरे

दिसम्बर का महीना और कड़ाकेदार ठण्ड पड़ रही थी। सुबह से ही घर में खूब चहल-पहल थी। आज दादाजी और दादीजी की शादी की 50वीं वर्षगाँठ थी। बहुत समय बाद हमारी पुश्तैनी कोठी में पूरा परिवार इकठ्ठा हुआ था। भुआजी तो 7 दिन पहले ही आ गई थीं। पापा, मम्मी, भैया और मैं लन्दन से 3 दिन पहले आए थे। पिछले दो माह से कोठी को नए सिरे से सजाने-संवारने का कार्य चल रहा था। पुरानी रिपेयरिंग, रंग-रोगन, नए परदे और बगीचे की नई सजावट ये सब काम दादाजी के समय से काम कर रहे शिव भैया के निर्देशन में हो रहे थे। हमारी ये कोठी लगभग 45 साल पुरानी होने के बावजूद ऐसी लग रही थी कि मानो अभी नई ही बनी हो। 

सुबह से ही दादाजी-दादीजी से जुड़े लोगों का आना चालू हो गया था। पूरा घर फूलों की खुशबू से महक उठा था। दादाजी को देखकर समझ में नहीं आता था कि शादी की 50वीं वर्षगाँठ है या जन्मदिन की। और दादीजी तो ‘माशा-अल्लाह’ आज भी मम्मी की उम्र की ही दिखती हैं। आने वाले सभी व्यक्तियों का स्वागत पापा – मम्मी, भुआजी – फूफाजी स्वयं करते हुए पुरानी यादें ताजा कर रहे थे। दादीजी तो बस अपनी बहनों के साथ ही बातचीत में मशगूल थीं। माहौल जबरदस्त और आत्मीय था। कॉलोनी वालों, नजदीकी दोस्तों और रिश्तेदारों के लिए दिन में भी घर पर एक पार्टी रखी थी। इस पार्टी का जिम्मा भुआजी ने लिया था और दुनियाभर के व्यंजन खुद ने चुन-चुनकर बनवाए थे। फ्रांस का सिम्फोनी प्रस्तुत करने वाला बैंड भी बुलवाया गया था जो अपने धीमे संगीत से उत्साहवर्धन कर रहा था। 

ख़ुशी के इस मौके पर शाम को पापा ने एक बड़ी पार्टी रखी थी। दादाजी के बचपन के दोस्त, ग्रुप के मुख्यालय का स्टाफ – भले ही अभी साथ में काम कर रहा हो, अन्य कंपनी में हो या रिटायर हो गया हो, सभी निमंत्रित थे। जिस भी कंपनी से दादाजी जुड़े, उनके मालिक लोग या उनके वरिष्ठ प्रतिनिधि भी आमंत्रित किए गए थे। पापा के दुनियाभर में फैले विशाल व्यापार को सँभालने वाले दादाजी के समय के सभी वरिष्ठ साथी भी आए थे। पुराने परिचित, यार-दोस्त, दूर-दूर के रिश्तेदार, समाज के लोग, विभिन्न संस्थाओं के प्रतिनिधि, पक्ष-विपक्ष सभी राजनीतिक दलों के वरिष्ठ पदाधिकारी और बहुत से लोगों को निमंत्रित किया गया था। दादाजी ने मेहरून रंग की गोल्डन एम्ब्रायडरी की हुई शेरवानी पहनी थी। दादीजी ने सुर्ख लाल रंग की चाइना सिल्क की गोल्डन एम्ब्रायडरी के साथ चिकन वर्क के फूल बनी हुई साड़ी पहनी थी। पापा का इंग्लिश सूट और मम्मी का गाउन बहुत ही खिल रहा था। भुआजी और फूफाजी ने खुद के डिजाइन किए हुए मैचिंग के अनोखे और नायाब वस्त्र पहने थे।

जहाँ पार्टी थी उसके मालिक अर्नव पापा के बचपन का दोस्त है। सजावट, व्यंजन का मेनू या अन्य कोई सुविधा; पार्टी से सम्बंधित सभी कार्य अर्नव चाचा के निर्देशन में ही हो रहे थे। पार्टी समय पर शुरू हो गई थी। आमंत्रित भी आने लगे थे। फ्रांस के सिम्फोनी बजाने वाले बैंड की स्वर लहरियों ने माहौल को जबरदस्त खुशनुमा बना दिया था। फूलों की सजावट का काम थाईलैंड की एक कंपनी ने किया था। दादाजी और दादीजी के लिए एक लम्बा सा बहुत खूबसूरत फूलों का स्टेज बनाया गया था। स्टेज पर उनके साथ पापा – मम्मी, भुआजी और फूफाजी भी थे। आने वालों का ताँता लगा हुआ था। पुरानी यादें ताज़ा हो रही थी। इतने पुराने साथियों और दोस्तों को देखकर दादाजी की आँखों में पानी भर आया था। शहनाई वादन और मंत्रोच्चार के साथ वरमाला का एक छोटा सा कार्यक्रम भी सम्पन्न हुआ। ढेर सारी आतिशबाजी से आसमान जगमगा उठा था। 

बहुत अच्छे से पार्टी संपन्न हुई। रात लगभग 12 – 12.15 बजे उत्साह से परिपूर्ण हम सब घर आ गए थे। किसी को भी थकान महसूस नहीं हो रही थी। तभी पापा ने बोला कि सिर्फ परिवार वालों की भी एक पार्टी हो जाए। घर के पुराने कर्मचारियों की मदद से पापा ने इसके लिए भी पहले से ही तैयारी की हुई थी। घर के बगीचे के बीच में एक बड़ा सा अलाव जलाया गया। घास पर ही गद्दे बिछाकर गाव-तकिए लगा दिए थे। अनौपचारिक माहौल में पुरानी यादें ताज़ा करने का मकसद था। बेक ग्राउंड में पुराने जमाने के ग्रामोफ़ोन पर दादाजी और दादीजी के जमाने के गाने बज रहे थे। दादाजी ने सबसे पहले घर-परिवार से सम्बंधित यादें बिखेरी। उसी में उन्होंने इस कोठी से सम्बंधित संघर्षों को भी बताया। हालाँकि ये सब पापा और भुआजी के सामने ही हुआ था पर हमारे लिए ये नई जानकारी थी। फिर उन्होंने दादीजी और भुआजी के साथ मिलकर किए गए व्यापार से सम्बंधित संघर्षों की दास्तान छेड़ी। माहौल रुदाली हो गया था। दादीजी और भुआजी की आँखों से तो आँसू ही झरने लगे थे। ये स्वाभाविक था और किसी ने भी किसी को रोकने – टोकने की कोशिश नहीं की। ये ही सच्चाई थी जो आँसुओ के माध्यम से टपक रही थी। परिस्थितियों के भारीपन को भाँपते हुए फूफाजी ने दादाजी को उनका सबसे मन-पसंद गाना सुनाने को कहा। 

दादाजी ने धीरे से तान छेड़ी – ऐ मेरी जोहर जबी, तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हँसी और मैं जवां, तुझ पे कुर्बान मेरी जान, मेरी जान। ये सुनते ही दादीजी की तो जोर से रुलाई फूट पड़ी। उन्होंने दादाजी के घुटनों पर सर रख दिया। दादाजी ने दादीजी को तुरंत आगोश में भर लिया। 

अचानक दादाजी बोले – अलाव की अग्नि को साक्षी मानकर हम दोनों अभी इसी वक्त पुनः फेरे लेंगे। आधी रात को ही भुवनेश पंडितजी, ढोली और गीतवाली बाई को बुलवाया गया। पंडितजी के मंत्रोच्चार, ढोल की तरंग और बाई के गीतों के साथ अग्नि को साक्षी करके दादाजी और दादीजी ने पुनः सात फेरे लिए। माहौल अकल्पनीय था।


दोस्ती की मज़बूत डोर

वो तीन तिलंगे जिन्हें मोहल्ला चाँदमारों की टोली कहता था, अलग-अलग पारिवारिक पृष्ठभूमि से थे। देबू के पापा की फैक्टरी थी। सन्नी के पापा बड़े व्यापारी और शेरा के पापा बड़े सरकारी ओहदे पर थे। एक ही स्कूल की एक ही कक्षा में तीनों पढ़ते थे। पढ़ाई-लिखाई में शेरा सबसे अव्वल, सन्नी औसत और देबू सबसे दूर था। तीनों की खूब घुटती थी। रोज शाम को स्कूल छूटने से लेकर देर रात को सोने तक तीनों किसी न किसी उधेड़बुन में लगे रहते थे। आने वाले त्योहारों की महीने भर पहले से तैयारी शुरू हो जाती थी। घुन्ताड़े का काम देबू, जमावट का काम सन्नी और दिमाग का काम शेरा के जिम्मे रहता था।

कंचे, अंटी, ढइय्या, पाकिट, पतंग, सितोलिया, लंगड़ी, छिप्पन-छाई, गधामार, नदी-पहाड़, पकड़म-बाटी, कबड्डी, चिय्यें, साँप-सीढी, लूडो, व्यापार, ताश के पत्ते सब कुछ खेलते और खूब खेलते। टायर चलाना, झाड़ पर चढ़कर जंगली चारोली तोड़ना, तालाब के पानी पर आड़ा पत्थर फेंककर उसको टप्पे खिलाना, रोज़ के मिलने वाले पईसे से मोटे का सैंडविच, डोकरी अम्मा के उबले आलू और चने, सिन्धी ठेले वाले के मसालेदार कबीट और बोर खाना, ये सब उनकी दिनचर्या में शामिल था। अनंत चतुर्दशी पर घर में ही झाँकियाँ सजाना, जन्माष्टमी के समय आँख पर पट्टी बाँधकर आड़ी-टेढ़ी लकीरों के बीच में से निकलते हुए मटकी फोड़ने का प्रयास करना और ईद के समय मीठी सिवईयां बनवाना यानी हर त्योहार के मज़े लेना, ये तो उनका शगल था।

दिसंबर की कड़कड़ाती ठण्ड, क्रिसमस की छुट्टियाँ और आने वाली संक्रांति के लिए पतंग का मान्जा सूतना, ये पूरे वर्ष की सबसे महत्वपूर्ण गतिविधि होती थी। देबू उसके पापा को बोलकर सूरत से मजबूत गट्टा (धागन) बुलवाता। सन्नी ट्यूब लाइट पीसकर कांच का चूरा बनाता। उसके घर पर ही चावल के मांड में आरारोट, सरेस, खाने का गोंद और रंग डालकर घोल को खूब उबालकर कांच का बुरा मिलाना, साइकल के पिछले पहिए पर लटाई सटाकर धागन खींचना और मान्जा तैयार करना, ये काम तीनों मिलकर ही करते थे। कोई हिसाब-किताब नहीं। सबका सब कुछ। देबू का मकान सबसे बड़ा और मोहल्ले के बीचों-बीच में था, जिसे सभी लोग लाल हवेली के नाम से जानते थे। बहुत बड़ी गच्ची थी और पतंग उड़ाने का वास्तविक मज़ा वहीँ पर आता था। अड़ोस-पड़ोस में किसी ने ज़रा सी भी पतंग ऊँची की तो पेंच लड़ जाते थे। खींच के हो या ढील के, लाल हवेली के आगे कोई नहीं टिकता था।

समय आगे बढ़ता गया और खेल भी बदल गए। क्रिकेट, बैडमिन्टन, टेबल टेनिस, फुटबाल, वालीबाल ये भी खूब खेलते। तीनों का साथ बरक़रार था। हाँ, पढ़ाई का महत्व बढ़ता जा रहा था। पहले घर वाले पढ़ने के लिए ज़ोर देते थे किन्तु अब उनको अपनी जवाबदारी भी समझ में आने लगी थी। तीनों में शेरा सबसे ज़्यादा पढ़ाकू था। उसकी बड़ा अफसर बनने की इच्छा थी। कभी-कभी देबू और सन्नी उसको ‘ओए कलेक्टर’ बोलकर चिढ़ाते थे।

समय गुज़रता गया। आगे की पढ़ाई के लिए देबू लन्दन चला गया। सन्नी ने शहर के ही अच्छे कॉलेज से कंप्यूटर साइंस में बी.ई. करने के लिए एडमिशन ले लिया। शेरा को आई.आई.टी. मुम्बई में प्रवेश मिल गया। मोहल्ले की रौनक चली गई। तीनों का मिलना भी कम हो गया था पर एक-दूसरे के संपर्क में थे। देबू और शेरा जब भी शहर में आते, सन्नी के साथ ही शाम गुजरती थी। पुनः समय बदला, सभी की पढ़ाई पूरी हो गई। देबू और उसके पापा बढ़ते हुए व्यापार को देखते हुए लन्दन में बस गए। लाल हवेली सुनसान हो गई। सन्नी ने उसके पापा का हाथ बंटाते हुए पूरे भारत में व्यापार फैला दिया। शेरा ने तो ग़ज़ब किया। मज़ाक को वास्तविकता में बदल दिया। वो कलेक्टर बन गया। जी हाँ, वो कलेक्टर बन गया। यू.पी.एस.सी. में उसकी 50 के अन्दर ऑल इंडिया रैंकिंग रही। उसका भी शहर छूट गया। सभी की शादियाँ हो गई और बाल-बच्चे भी हो गए। तीनों संपर्क में थे परन्तु मिलना-जुलना कम ही होता था।

मोहल्ले वालों ने एक दिन देखा कि लाल हवेली की साफ-सफाई और रंग-रोगन हो रहा है। पड़ोसियों ने हवेली के चौकीदार सौदान काका से इसका कारण पूछा तो वो बोले – ‘मोहे।। का पतो। मनीज्जर साब भेजे हैं इनको।’ कड़ाकेदार ठण्ड वाले जनवरी के महीने का पहला हफ्ता था। लाल हवेली पर एक नम्बर लिखी हुई सफ़ेद एस.यू.वी. आकर रुकी। देबू, उसके पापा और उनका पूरा परिवार आया था। मोहल्ले के पुराने परिचित भी इकट्ठे हो गए। देबू तो उतरते ही मोहल्ले की गलियों में बहुत कुछ खोजने चला गया। हर एक घर, गली और चौराहा मानो उससे बातें कर रहे थे। वो तो खो सा गया था। वो कभी ओटले पर, कभी बगीचे की डोली पर, तो कभी साईं के टूटे स्टूल पर बैठा। उसने एक पत्थर उठाया और दूर से बिजली के खम्बे को निशाना लगाकर ताड़ दिया। निशाना लगते ही जोर से आवाज आई – टन्न।। और देबू को जैसे खोया धन मिल गया। वही पत्थर उठाकर उसने पास से गुजरते हुए एक काले कुत्ते को दे मारा। कुत्ता चिल्लाता हुआ भागा और देबू का बचपन लौट आया।

संक्रांति से तीन दिन पहले ही शेरा भी आ गया। सन्नी तो शहर में ही था। तीन तिलंगे फिर भेले हो गए। मान्जा सूतना था। सारा सामान पहले ही आ गया था। वो फिरंगी घोल बना रहा था। देसी भैया साइकल का पेडल मार रहे थे और कलेक्टर धागन सूत रहा था। संक्रांति की सुबह तीनों जल्दी ही गच्ची पर पहुँच गए और का।।।टा है की आवाजें लगने लगी। समय के साथ पतंग उड़ाने वाले भी बढ़ गए। आस-पास के कुछ मकान भी ऊँचे हो गए थे। पहले जैसा एकतरफ़ा मौका नहीं था। तीनों पतंग काट भी रहे थे और उनकी पतंग कट भी रही थी। का।।।टा है की आवाज के साथ ही ज़ोर-ज़ोर से ढोल बजने लगता। पतंग लूटने का मज़ा नहीं रहा किन्तु उड़ती हुई पतंग से कटी हुई पतंग हिलकाने का जोश कुछ ज़्यादा था। गच्ची पर ही सारी खाने-पीने की व्यवस्था थी। देर शाम तक जोश बरक़रार रहा। मोहल्ले वालों ने चाँदमारों की टोली को पुनर्जीवित होते देखा।

तीनों ने सच्चे मन से स्वीकारा कि तीनों ने ही एक दूसरे को बहुत मिस किया। ये मौज-मस्ती पहले भी करनी थी। खैर, देर आए दुरुस्त आए। दूसरे दिन, अगले वर्ष पुनः मिलने के वादे के साथ तीनों ने भारी मन से विदा ली। इस दृश्य को देखकर सभी चौंक गए। दुनिया का बड़े से बड़ा सुख हो या अधिकार, यारी दोस्ती के आगे सब कुछ फीका है।


सफलता का सफ़र

अमेरिका की सिलिकॉन वैली में दुनियाभर के कंप्यूटर जगत की नामी-गिरामी कई कंपनियों के मुख्यालय हैं, यहीं पर कंप्यूटर के क्षेत्र में कार्य करने वाली एक भारतीय कंपनी का मुख्यालय भी है। कंपनी के मुखिया,रघुजी के नेतृत्व में करीब 30 देशों में फैले हुए कार्यालयों और अमेरिका स्थित मुख्यालय में लगभग 5000 कर्मचारी कार्य करते हैं। उन्होंने शून्य से शुरुआत करके अपनी सोच और मेहनत से कंपनी को उस मुकाम पर पहुँचा दिया कि आज पूरा विश्व इसे जानने लगा है। इस कंपनी में काम करना ही एक प्रतिष्ठा की बात है। अमेरिका सरकार द्वारा रोजगार प्रदान करने में उल्लेखनीय योगदान के लिए रघुजी को विशेष रूप से पुरस्कृत किया गया।

फरवरी का महीना, बसंत पंचमी का दिन और सूर्योदय के समय चारों और चहल-पहल थी। इस दिन शिक्षा, ज्ञान-विज्ञान, नाट्य-संगीत और तकनीकी की देवी माँ सरस्वती की पूजा और वंदना का सालाना कार्यक्रम रखा गया था। देवी माँ की भक्ति को समर्पित गायन-वादन और भजन के कार्यक्रम को भारत से विशेष रूप से आमंत्रित संगीतकारों की टोली प्रस्तुत करने वाली थी। ‘अक्षरारम्भ’ के अंतर्गत कंपनी में आज के दिन नए नियुक्त हुए कर्मचारियों को कंपनी के प्रति निष्ठा रखने की शपथ भी दिलवाई जाती थी। कंपनी के मुख्यालय पर अलग-अलग देशों में स्थित कार्यालयों के प्रमुख भी उपस्थित थे।

आत्मीय वातावरण में चन्दन की महक घुली हुई थी। सजावट का कार्य करने वालों ने पीले फूल और हरी पत्तियों का प्रयोग करते हुए सभागृह को निहायत ही खूबसूरत बना दिया था। भारतीय परिधानों में सजे भारतीय और स्थानीय अमेरिकी युवक और युवतियाँ सभी को आकर्षित कर रहे थे। रघुजी के केबिन से सम्पूर्ण सभागृह का दृश्य नज़र आ रहा था।

कार्यक्रम की तैयारियों को अपने केबिन से ही देखते हुए रघुजी पुरानी यादों में खो गए। धुँधली सी याद है कि छुटपन में कैसे मम्मी उन्हें सुबह-सुबह तैयार करके भगवान के पाठ में तल्लीन ताऊजी के पास बैठा देती थी। वे भी आँख मीचकर, बगैर किसी को तंग किए बैठे रहते थे। ताऊजी पूजा खत्म करके गुड़ और खोपरे के बूरे का प्रसाद देते थे। प्राथमिक विद्यालय में प्रतिदिन होने वाली प्रातःकालीन प्रार्थना में गाए जाने वाली माँ सरस्वती की वन्दना मन को आल्हादित करती थी। माध्यमिक विद्यालय के सभागृह में देवी सरस्वती का धवल वस्त्र में वीणा बजाते हुए सादगीभरा बड़ा सा चित्र भी बहुत आकर्षित करता था। बसंत पंचमी के दिन विद्यालय में माँ सरस्वती के पूजन-अर्चन का विशेष कार्य होता था। कक्षा पहली से लेकर कक्षा आठवीं तक ही बाल-मन में इस प्रकार का भक्तिभाव रहा। बाद में पढ़ाई के बोझ और भविष्य को सँवारने की चिंता ने इस रुझान को कम कर दिया था। फिर भी अध्यात्म के प्रति उनका हमेशा ही लगाव रहा।

शिक्षा समाप्त करने के पश्चात् आगे के पारिवारिक, सामाजिक और व्यावसायिक जीवन में कई लोगों से संपर्क हुआ। पिताजी का व्यापार आगे बढ़ाने के साथ ही नए-नए व्यापार और कम्पनियाँ जोड़ते हुए तरक्की की राह पर चलते गए। ऊँची तनख्वाह देने के बावजूद भी मन-माफिक कार्य करवाने के लिए अच्छे कर्मचारियों का अभाव था। मुझे विचार आया कि क्यों ना बच्चों को प्राचीन भारतीय ज्ञान और वर्तमान विज्ञान के सामंजस्य से तैयार किया जाए। इसी विचार को लक्षित करके ताऊजी के नाम पर एक विद्यालय की नींव बसंत पंचमी के दिन रखी गई। एक-एक ईट जोड़ते हुए प्राथमिक से लगाकर स्नातकोत्तर (Post Graduation) तक की शिक्षा देने की व्यवस्था की। मध्यमवर्गीय परिवारों के होनहार बच्चों को छात्रवृत्ति देकर उन्हें प्रोत्साहित किया।

विद्यालय के प्रतिभावान युवक-युवतियों को शिक्षा पूर्ण होने पर अपनी ही कंपनी के साथ जोड़ते हुए दोनों पक्षों की तरक्की के द्वार खोलकर मन-माफिक परिणाम प्राप्त किए। वर्षों का लक्षित प्रयास रंग लाया। कार्य के प्रति जवाबदेह और समर्पित युवाओं की टीम तैयार होने लगी। नई-नई योजनाओं के अनुसार समयानुकूल व्यापारों में निवेश करते हुए युवाओं को ज्यादा से ज्यादा जवाबदारी सौंपकर राष्ट्रीय स्तर का व्यापार अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर बढ़ता चला गया।

– ‘सर, सभी तैयारियाँ हो गई हैं और आपको याद किया जा रहा है।’ अचानक आई किसी की आवाज से रघुजी की तन्द्रा भंग हो गई।

– ‘हाँ, अभी आया’, उन्होंने जवाब दिया।

भारतीय प्राचीन संस्कृति से ओत-प्रोत इस भव्य कार्यक्रम की शुरूआत सरस्वती वन्दना से हुई। गायकों और संगीतकारों के दल द्वारा दी गई प्रस्तुति ने समां बाँध दिया। नाट्य दल द्वारा भी विविध मनमोहक प्रस्तुतियाँ दी गई। कम्पनी के प्रति निष्ठा का कार्यक्रम ‘अक्षरारम्भ’ बहुत प्रभावी रहा। सबसे अंत में उपस्थित गणमान्य व्यक्तियों द्वारा अमेरिका और भारत दोनो देशों का राष्ट्रगान गाया गया। विदेशी धरती पर विदेशी लोगों के बीच एक पराई संस्कृति को स्थापित करना बहुत कठिन कार्य है। बहुत आग्रह करने पर रघुजी ने उपकार फिल्म का गीत ‘हे प्रीत जहाँ की रीत सदा…..’ सुनाया. गीत के अंतिम मुखड़े को पूरे सभागृह ने एक स्वर में गाकर माहौल को जीवंत कर दिया.

रघुजी द्वारा स्थापित ये उध्यम आज एक बड़े वटवृक्ष का रूप ले चुका है और हजारों लोगों की जीविका का माध्यम है। देखे गए सपनों का क्रियान्वयन होना उम्र के किसी भी मोड़ पर सुखदायक होता है।


फागुन

बसंत पंचमी के शुभ मुहूर्त में नेहा और चिराग की शादी हो रही थी। विवाह की समस्त रस्में लगभग पूरी हो चुकी थी। फेरे पड़ रहे थे। चारों तरफ उल्लास का माहौल था। सभी के रग-रग में खुशियाँ समाई हुई थी। एक तरफ दूल्हे राजा का परिवार बैठा था। उसके दोस्त क़दम-क़दम पर चुहलबाजियाँ कर रहे थे। दूसरी तरफ दुल्हन का परिवार भी पीछे नहीं था। हर आते हुए शब्दों के तीर का जवाब तोप से दिया जा रहा था। योग्य दामाद पाकर नेहा के मम्मी-पापा की वर्षों की साध पूरी हुई और मनपसन्द वर पाकर नेहा के पाँव तो जमीन पर ही नहीं टिक रहे थे। नेहा की छोटी बहन सुरभि ने अपने जीजू के जूते छुपा दिए थे। वो मोटे नेग की उम्मीद कर रही थी।

फेरे भी सम्पन्न हो गए और दूसरी रस्म निभाई के लिए मंदिर जाना था। परन्तु जूते गायब थे। सभी को सुरभि पर ही शक हुआ और उसी से पूछताछ हुई। दूल्हे का दोस्त नकुल ज़ोर से बोला – जूते कहाँ है? जल्दी लाओ। देर हो रही है। कोई उत्तर नहीं आया। कुछ देर तक सिर्फ आपसी नोकझोंक होती रही। आख़िरकार दूल्हे के फूफाजी बोले – क्या नेग चाहिए? जल्दी बोलो।

  • “पूरे इक्कावन हज़ार।” सुरभि जोश में बोली।
  • “तेरा दिमाग तो ख़राब नहीं हो गया है?” फूफाजी चिल्लाए। “इतने में बीस जोड़ी जूते आ जाएँगे”।
  • “ठीक है, ले आओ 20 जोड़ी जूते। मैं तो इससे कम में नहीं मानूँगी।“ सुरभि बोली।

इतना भारी नेग सुनकर और कोई गुंजाइश ना देखकर दूल्हा अपने दोस्त के जूते पहनकर जाने लगा। बाजी पलटती देखकर सुरभि ने धीरे से पूछा – आप कितना देना चाहते हैं?

  • पूरे इक्कीस सौ। दो हज़ार का नया और उसके ऊपर सौ का कड़क नोट। “हे मर्जी तो दे अर्जी।”

आखिरकार, इक्कावन सौ में सौदा पटा। सुरभि ने जूते वापस कर दिए। दूल्हे के कान में धीरे से फुसफुसाई – “जीजू, बदला जरूर लूँगी, तैयार रहना।

शादी बहुत अच्छे से बगैर किसी विघ्न के संपन्न हुई। दुल्हन ससुराल विदा हो गई। नेहा और सुरभि की रोज मोबाइल पर बातें होती थी। होली का त्योहार आने वाला था। उसके ठीक बाद नेहा को गणगौर पूजन के लिए भी मायके आना था। कार्यक्रम ऐसा बना कि चिराग होली अपने ससुराल में मनाएंगे और बाद में नेहा को गणगौर पूजन के लिए मायके में छोड़ देंगे। सुरभि की तो लाटरी लग गई। मन ही मन बुदबुदाई – “अब ना छोडूंगी, ढेर सारा बदला लूँगी” और वो योजनाएँ बनाने लगी।

चिराग और नेहा घर आए। उनकी बहुत आवभगत हुई। आखिर कुंवरसा पहली-पहली बार ससुराल जो पधारे थे। चिराग ने आते ही कह दिया – मैं होली नहीं खेलूँगा। सुरभि ने भी उसी स्टाइल में जवाब दिया – मैं तो होली खेलूँगी और आपके साथ ही खेलूँगी। वे दोनों चिक-चिक करने लगे। नेहा ने ये कहते हुए बीच-बचाव किया कि जो होगा उसी दिन देखा जाएगा।

होली के दिन सुबह से ही चिराग ने सभी खिड़कियाँ बंद कर ली और दरवाजे में कुण्डी डालकर बैठ गया। नेहा और सुरभि की सहेलियाँ भी आ गयी। उन सभी ने चिराग को बाहर निकलकर होली खेलने के लिए बहुत बार मनाया पर वो टस से मस नहीं हुआ। दोपहर में नेहा ने दरवाजा खटखटाया और बोली कि 2 बज गए हैं, खाना लाई हूँ, अब तो दरवाजा खोल दो। पर चिराग तो जैसे कसम खाकर बैठा था। उसने दरवाजा नहीं खोला। दोपहर खत्म हो चली थी। उनकी सहेलियाँ भी चली गई। नेहा और सुरभि ने भी नहाकर कपड़े बदल लिए। चिराग ये सब दृश्य बार-बार खिड़की खोलकर देख रहा था। उसे भी बहुत ज़ोर से भूख लग आई थी। लगभग 4 बजे चिराग ने दरवाजा खोला और नेहा को आवाज लगाई – नेहा ।।।।। कहाँ हो? ज़ोर से भूख लगी है। नेहा बरामदे में थी और वहीँ से बोली इधर ही आ जाओ, साथ बैठकर खा लेंगे। चिराग निश्चिन्त होकर बरामदे में पहुँचा कि सुरभि और उसकी सहेलियाँ उस पर टूट पड़ी। चिराग भौचक्का रह गया। उसे उम्मीद नहीं थी कि ये लोग इतनी देर तक इंतज़ार करेंगे। कोई उसके मुँह पर रंग चुपड़ रही थी तो कोई दोनों बाँहों को रंगने में लगी थी। सुरभि ने तो जीजू की टी शर्ट ऊपर करके पूरा पेट और पीठ रंग दी। कोई रुकने को ही तैयार नहीं थी। सुरभि का पूरा बदला जो लेना था। नेहा भी दिखावे भर का विरोध कर रही थी। शुरू में चिराग ने विरोध किया और खूब चिल्लाया। जब उसको समझ आ गया कि अब बचना मुश्किल है तो वो भी मजे के मूड में आ गया। फिर तो उसने जो धमाचौकड़ी मचाई कि एक-एक करके सब लडकियाँ भाग गई। आखिर में सिर्फ सुरभि और नेहा बची। एक बार फिर सभी ने जमकर यादगार होली खेली।

उसके बाद सभी लोग नहाने चले गए। होली का मूड अभी भी बरकरार था। इस रंगारंग माहौल में उज्जैन वाले भुआजी और फूफाजी भी आ गए थे। जोर से भूख लग रही थी और सभी ने डटकर समोसे, कचोरी, खमण और जलेबी का नाश्ता किया। रामू काका सात गिलास ठंडाई ले आए। चिराग ने धीरे से नेहा से पूछा – इसमें भांग तो नहीं है ना? नेहा बोली सभी तो यहीं हैं। रामू काका ने मिलाई हो तो नहीं पता। काका ने सभी को और सबसे आखिर में चिराग को ठंडाई दी। यहीं चिराग चूक गया। उसकी ठंडाई हल्का हरा रंग लिए हुई थी। उसमें नेहा ने पहले ही भांग मिला दी थी। चिराग ने एक ही बार में गटागट करके पूरा गिलास खाली कर दिया। कुछ ही देर में भांग ने असर दिखाना शुरू किया। चिराग बोला – “हम गाना गाएगा। अपनी महबूबा नेहा के साथ।” सभी चौंक गए। ये तो ऐसा नहीं था। पापा ने सुरभि की तरफ तिरछी नज़रों से देखा तो वो इधर-उधर देखने लगी। उन्हें सब समझ आ गया। बच्चों की ख़ुशी ही उनकी ख़ुशी थी। वो भी मजे के मूड में आ गए। चिराग के पास ही में एक ढोलक रखा था। वो उसे उठाकर जोर-जोर से लय और ताल के साथ बजाते हुए नाचने लगा। चिराग ने ढेर गाने सुनाए और खूब धमाल-चौकड़ी की। वो माहौल में ऐसे समा गया कि मानो उसकी शादी को 10 – 20 साल हो गए हों। देर रात को सभी ने खाना खाया। सुरभि का बदला भी पूरा हो गया था। अगले दिन की सुबह जल्दी की फ्लाइट से चिराग मीठी-मीठी यादों के साथ वापस लौट गया।


सितारा तीसरी पीढ़ी का

सुरीली की नानी शास्त्रीय संगीत की ख्यात गायिका थीं। उसकी मम्मी और सुरीली, दोनों को सुरीला गला प्राकृतिक तौर पर मिला। घर में लक्ष्मीजी और सरस्वतीजी का वास था। कहते हैं कि पूत के पाँव पालने में दिख जाते हैं। कुछ ऐसा ही सुरीली के साथ हुआ। सुरीली के नाते – रिश्तेदारों को उसके हँसने – बोलने में भी फूल झरते हुए नज़र आते थे। संगीतमय प्रकृतिक पृष्ठ्भूमि होने के कारण गायन और वादन तो जेहन में ही रचा – बसा हुआ था। सुरीली की प्रतिभा को देखते हुए उसकी मम्मी ने घर पर ही संगीत की शिक्षा देने की व्यवस्था की। सुरीली का एक छोटा भाई भी राजू भी था। उसकी संगीत में विशेष रूचि नहीं थी।

स्कूल के संगीत कार्यक्रमों में सुरीली ने अपना परचम लहरा दिया। कोई भी कार्यक्रम हो या प्रतियोगिता, गायन की या वादन की, उसका जाना और प्रथम पुरस्कार पाना, पक्का था। हाँ एक बात तो बताना ही रह गई। पड़ोस में रहने वाली गुंजन आंटी का बेटा मोंटी जो कि सुरीली से एक साल बड़ा था, वो भी संगीत का अच्छा जानकार था। सुरीली के लगभग सभी कार्यक्रमों में पुरूष आवाज की प्रभावीत प्रस्तुति उसकी ही होती थी। मोंटी और सुरीली दोनों अच्छे दोस्त थे।

सुरीली ने स्कूल की प्रतियोगिताओं से परे 14 वर्ष की छोटी उम्र में ही राज्य सरकार द्वारा आयोजित की जाने वाली संगीत की प्रतिष्ठित प्रतियोगिता जीतकर खूब नाम कमाया। कार्यक्रम की प्रस्तुति के बाद प्रदेश के मुख्यामंत्री ने सुरीली को विशेष प्रशस्ति पत्र और एक लाख रुपये का पुरस्कार देते हुए उसके अच्छे भविष्य की कामना की।

कुछ लोगों के सुझाव पर उसने राष्ट्र स्तर की सारेगामा की ‘सितारे की खोज’ प्रतियोगिता का फॉर्म भर दिया। सारेगामा से ऑडिशन के लिए बुलावा आया और प्रारंभिक पायदान में हिस्सा लेने के लिए उसका चयन हो गया। मम्मी और मोंटी के साथ वो दिल्ली गई। एक के बाद एक दी गई उसकी समस्त प्रस्तुतियाँ बहुत उच्चस्तरीय रही। इतनी कम उम्र में इतना अच्छा गायन कार्यक्रम के जजों और आमन्त्रित श्रोताओं को लुभा गया। यहाँ भी सुरीली को प्रथम पुरस्कार से नवाजा गया। उसे राष्ट्रस्तर की मुंबई में होने वाली संगीत की सबसे बड़ी प्रतियोगिता में हिस्सा लेने का मौका भी मिला।

उत्साह वर्धन के लिए उसके पापा भी उनके साथ मुंबई गए। आयोजकों ने ही उनके रुकने की व्यवस्था की थी। कार्यक्रम एक बड़े सभागृह में रखा गया था। कुल 10 प्रतिभागी थे। भारतीय फिल्म इंडस्ट्री के बड़े – बड़े नामचीन गीतकार, संगीतकार और गायक कलाकार वहाँ उपस्थित थे। कोई जज तो कोई संचालक था और कोई संगीत दे रहा था। सभी लोग अपनी – अपनी भूमिका संजीदगी और सकारात्मक भाव से निभा रहे थे। इससे प्रतिभागियों का भी उत्साहवर्धन हो रहा था। एक के बाद एक सभी ने अपनी – अपनी प्रस्तुतियाँ दी। सुरीली की ऐतिहासिक प्रस्तुति के दौरान मानो समय ही ठहर गया था। श्रोताओं के कान झंकृत हो गए थे। उसके मधुर गायन के पश्चात् सभी ने खड़े होकर 5 मिनट तक तालियों की गडगडाहट के साथ सुरीली का अभिवादन किया। एक अच्छी गायिका के रूप में वो फिल्म इंडस्ट्री की निगाह में आ गई।

इसके बाद तो सुरीली और उसके केरिअर को पंख लग गए। बोलीवूड के एक प्रसिध्द फिल्मकार ने उसे अपनी फिल्म में गाने का मौका दिया। फिल्म को जबरदस्त कामयाबी प्राप्त हुई और वो छा गई। उसके पास गायन के प्रस्तावों के ढेर लग गए। वो मंच की बड़ी – बड़ी प्रस्तुतियां भी देने लगी। क्या देश और क्या विदेश, सभी जगह उसकी धाक जमने लगी। खूब जमकर पैसा बरस रहा था। अधिकतर कार्यक्रमों में मोंटी ही साथ रहता था, पर पुराने रिश्तों में खिंचाव आने लगा था।

सुरीली का परिवार मुंबई रहने आ गया था। उन्होंने पाश लोकेशन पर एक बड़ा फ्लैट भी ले लिया था। सुरीली का अब रोज ही कहीं ना कहीं जाना लगा रहता था। कभी गाने की रिकॉर्डिंग तो कभी स्टेज शो। ये भी देश और विदेश के अलग – अलग शहरों में होने लगे थे। सुरीली के गाए हुए गानों की एक फिल्म को बहुत जबरदस्त सफलता प्राप्त हुई। सुरीली को इसके लिए फिल्म फेयर का प्रथम पुरस्कार प्राप्त हुआ। उस फिल्म के हीरो इशान को सर्वश्रेष्ठ नए नायक का सम्मान प्राप्त हुआ। इसी के साथ सुरीली और इशान का मिलना जुलना बढ़ गया। फिल्म इंडस्ट्री में उनकी दोस्ती के चर्चे होने लगे। उधर मोंटी भी फिल्मों में छोटी – मोटी भूमिकाएं करने लगा। सुरीली के साथ स्टेज शो में उसका कभी – कभी ही जाना होता था। भारत सरकार से सुरीली को बहुमूल्य प्रतिभा का धनी होने के कारण राष्ट्रीय पुरस्कार दिया गया।

एक और फिल्म जो कि देश के एक प्रतिष्ठित औधोगिक घराने के एकमात्र वारिस आकाश की प्रथम प्रस्तुति थी, जिसमे सुरीली के ही गाए हुए गाने थे, जबरदस्त सफल रही। इसकी सफलता के उपलक्ष्य में आकाश ने एक बड़ी पार्टी रखी जिसमें पूरी फिल्म इंडस्ट्री को निमंत्रण दिया गया था। वहां पर सुरीली और आकाश की कुछ नजदीकियां सामने आई।

कुछ समय बाद सुरीली ने अपना मनपसन्द साथी चुनकर घर बसा लिया और पिया के घर चली गई। पूरी उम्र गीत संगीत की दुनिया से जुड़कर बहुत खुश रही।


यादें याद आती है

‘इस बार तो मैं किसी की नहीं सुनूंगी। जाऊँगी ही जाऊँगी। इतने साल हो गए, याद ही नहीं कब सारी बहनें एक साथ बैठी थीं। स्नेहल का ब्याह हो गया, साहिल अमेरिका चला गया, मेरे पास तो कोई बचा ही नहीं। शिव… एक-एक करके सभी मौसियों को फ़ोन लगा कर दे तो।’ बबीता ने कुछ इसी तरह से पूरा आसमान सिर पर उठा लिया था। घर की बाइयाँ और नौकर-चाकर भाभीजी के इस स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थे। थोड़ी देर चिल्लाएँगी, मन हल्का करके चुप हो जाएँगी।

शिव ने सबसे पहले जयपुर फ़ोन लगाकर भाभीजी को दिया।

‘कऊ, अगले हफ्ते 10 तारीख को हम सब बहनें खरगोन में इकट्ठी हो रही हैं। तू इंदौर होकर जाए तो मेरे साथ चलना। नहीं तो मानपुर फाटे से सीधी चली जाना।’ एक आदेशात्मक लह्जे में बबीता बोली।

‘पण जीजी, बात कई है? ना वार ना त्त्योहार।’ कोयल ने पूछा

‘कुछ नहीं रे, साल पे साल निकल गया, मिलनों ही नहीं होए, छोर-छोरी भी कने नहीं हैं, घर काटवा दौड़े। ई लिए ही, प्रोग्राम बना लियो, मम्मी-बाऊजी से भी मिल लेंगा।’ बबीता ने जवाब दिया।

‘जीजी, यो तो अच्छो करयो, मानसी का ब्याव के बाद मोनू भी जॉब करवा बंगलोर चली गई, और तन्नु पिलानी में पढ़ी रियो है। मैं भी अकेली–अकेली थकवा लग गई हूँ। ये आएगा, तो पूछकर बताऊँगी। वैसे तू तो मान ही ले। इंदौर आई के साथ चलान्गा, 10 तारीख ने।’

शिव ने अगला फ़ोन हरदा लगा दिया।

‘मैना, अपन सब बहनें अगले सप्ताह की 10 तारीख को खरगोन में इकट्ठी हो रही हैं। अभी से पेटी जमा ले।’

‘जीजी, कोई कार्यक्रम है कंई?’ मैना ने पूछा।

‘नहीं कोई कार्यक्रम नहीं है। मम्मी-बाऊजी से मिले बहुत दिन हो गए, तो चलना है।’

‘ठीक है जीजी, 9 तारीख को ही पहुँच जाऊँगी। तू बोले तो इनको भी साथ ले आऊँ।’

‘नहीं–नहीं, सिर्फ बहनें मिल रही हैं।’

‘ठीक है’ मैना ने जवाब दिया।

शिव ने अगला फ़ोन खंडवा लगाकर दिया। ‘मालिनी, हम सब बहनें अगले सप्ताह की 10 तारीख को खरगोन में इकट्ठी हो रही हैं। अभी से प्रोग्राम बना ले।’

अरे जीजी, मैं तो यहीं पर आई हुई हूँ।’

‘अच्छा, तो फिर थोड़े और दिन वहीं पर रुक जा। हम सब 10 तारीख को वहीं पर आ रहे हैं।’

‘ठीक है जीजी, यहीं रुक जाऊँगी’ मालिनी बोली।

10 तारीख आ गई। जयपुर से कोयल आई और बबीता के साथ खरगोन चली गई। मैना और मालिनी पहले से ही वहाँ पहुँच गई थी। भाई–भोजाई और सारी बहनें, साथ में मम्मी-बाऊजी। बच्चे तो सिर्फ मैना और मालिनी के ही थे। पहले जैसी खूब धमा-चौकड़ी नहीं थी। सिर्फ बहनें और बातें थी। देर रात तक खूब मिले, बतियाए, खूब टापरे गिने। क्या इंदौर, क्या खरगोन और क्या ओझर, खूब बधिया उधेड़ी।

अगले दिन देर तक किसी के भी उठने के पते नहीं थे। भर गर्मी और ठन्डेगार एयर-कंडीशनर में सारी बहनें और बच्चे, गधे–घोड़े बेचकर सो रहे थे। भाभी जरूर उठ गई थी। नौकरों से घर की साफ़-सफाई और नाश्ते की तैयारी करवा रही थी। कुछ देर बाद एक-एक करके सब लोग उठे, तैयार हुए और ड्राइंग रूम में इकट्ठे हो गए। वही माहौल, बच्चों की वही मस्ती, बातचीत के नए-नए विषय निकल आए थे। बबीता बोली – मुकेश, ओझर चलें क्या? टाकली के खेत भी हो आएँगे, शिव टेकड़ी में भगवान के दर्शन भी कर लेंगे। बबीता ने तो मानो सभी के मन की बात छीन ली, सभी तुरंत तैयार हो गए।

सबसे पहले, सभी लोग ओझर पहुँचे। ओटले पर खड़ा मनीष अपनी बहनों का इंतज़ार पत्नी और बच्चों के साथ कर रहा था। वर्षों बाद अपनी जन्मस्थली, बचपन बिताया हुआ घर देखकर सबकी आँखे भर आई। ढेर सारी यादें ताजा हो गई। अचानक, हाँ अचानक ही पीछे के कमरे से सबसे पहले बल्ली, फिर सोनिया, फिर चीकू और फिर दुर्गा निकली। ये क्या माज़रा है? एक साथ बचपन गुजारने वाली नौ बहनें जो वर्षों तक एक दूसरे से कटी-कटी रही, उनका पुनर्मिलन हो रहा था। माहौल रुदाली हो गया। सारी बहनों ने एक दूसरे से मिलकर, आँसू बहाकर गिले-शिकवे दूर किए। पर…ये सब हुआ कैसे? पता चला कि पूरी जमावट जीजी के द्वारा की गई थी। दोनों भाई और जीजी को छोड़कर किसी को भी कानों-कान ख़बर नहीं थी। अड़ोसी-पड़ोसी और दूसरे काका के परिवार के ढेर सारे लोग जमा हो गए कि बात क्या है? सुभाष–बसंत की सारी बेटियाँ क्यों आई हुई है? स्थिति स्पष्ट होने पर सभी ने चेन की साँस ली। सभी आगंतुकों के लिए चाय-नाश्ते की व्यवस्था की गई।

उसके बाद तो माहौल उत्सवी हो गया था। सभी बहनें और दोनों भाइयों का पूरा हुजूम चल पड़ा। कभी एक कमरे में तो कभी दूसरे कमरे में। पुरानी यादें ताज़ा करते, खिलखिलाते और एक दूसरे को छेड़ते हुए। नाश्ता, खाना-पीना और हँसी-ठिठोली, कैसे पूरा दिन निकल गया, पता ही नहीं चला।

अगले दिन सुबह ही सभी लोग नदी पर नहाने के लिए निकल पड़े। सारी बहनें खाते-पीते घर की बहुएँ थी। दुल्हन बनकर विदा होने से लेकर आज तक में लगभग ढाई से तीन गुना वजन का फर्क आ गया था। खूब-खूब मस्ती की। एक बार जहाँ धम्म से बैठी तो हिलने का नाम नहीं। भूख भी लग आई थी। टाकली के खेत पर खाने की व्यवस्था की गई थी। डाकू मोहरसिंह का पोता आज भी परिवार के साथ वहीं पर रह रहा था। अच्छी आव-भगत के साथ सभी ने दाल, बाटी, चूरमा, कढ़ी, हरी और लस्सन की चटनी और कटे प्याज़ के साथ खाने का आनंद लिया। केरी का पानी तेज हरी मिर्च और सादी नुक्ती के साथ जबरदस्त तृप्ति दे गया। गर्मी का मौसम था। मनीष मामा ने वहीं पर गाव-तकियों के साथ कूलर की व्यवस्था कर दी थी। सब ने एक झपकी भी ले ली। शाम होते-होते शिव टेकडी मंदिर के लिए निकल पड़े। सभी ने एक ही कामना की कि ये भाईचारा सदा बना रहे। साल में कम से कम एक बार तो यहाँ दो-तीन दिन के लिए मिलना जरूर हो। देवादास पण्डितजी ने सबको दिल से आशीर्वाद दिया।

अगले दिन सुबह विदाई हुई। बबीता, कोयल, बल्ली और सोनिया ओझर से ही इंदौर के लिए निकल गई। मैना और मालिनी खरगोन होते हुए हरदा, खंडवा के लिए निकली। चीकू सेंधवा चली गई और दुर्गा का एक–दो दिन ओझर में ही रुकने का कार्यक्रम था। बबीता की मेहनत रंग लाई। घर-परिवार के मतभेद दूर होकर परिवारों का मिलन भी हो गया।


जीवन साथी

अर्पिता, कोमल और सुरभि, तीनों पक्की सहेलियाँ थी। इतनी पक्की कि मानो दान्त काटी रोटी। छठी से बारहवीं तक का स्कूल साथ था। उसके बाद तीनों का एक ही विषय और एक ही कॉलेज रहा। उनकी इतनी पुरानी और पक्की जोड़ी ने कई-कई मुहावरे गढ़ दिए, जैसे कि पिछले जन्म में ये तीनों जुडवाँ बहनें थीं, वगैरहा – वगैरहा। आपसी समझ इतनी तगड़ी थी कि कई बार एक ही विचार तीनों को एक साथ आता था। शायद कोई टेलीपेथी होती थी। दूसरी लड़कियों ने या यूँ कहें कि कच्ची सहेलियों ने तीनों में मतभेद करने की कई बार असफल कोशिश की। मन की साफ़ और स्पष्ट होने के कारण सभी के परिवारों को इनका साथ रहना सुखदायक लगता था। हाँ, एक चिंता घिरती थी कि शादी के बाद की जुदाई ये कैसे बर्दाश्त करेंगी।

अब तो कॉलेज की पढ़ाई भी पूरी हो गई। तीनों ने कंप्यूटर साइंस में बी।ई। किया। ऊपर वाले का नजराना तो देखो, तीनों को एक ही कंपनी में पास के ही एक बड़े शहर में नौकरी मिल गई। चलो, कुछ समय का और साथ मिल गया। तीनों अभी तक तो अपने – अपने घर में रहती थी। पर अब साथ में रहने के कारण और नजदीकियां बढ़ेंगी। घर से किसी भी प्रकार की कमी नहीं थी इसलिए तीनों ने मिलकर एक अच्छी बिल्डिंग में बढ़िया सा फ्लैट ले लिया। नया शहर और नई नौकरी के बावजूद तीनों का पुराना साथ होने के कारण घर वाले निश्चिन्त थे।

नई जिन्दगी की शुरुआत, नए शहर में, नया घर बसाते हुए, नई जवाबदारियों के साथ। जीवन में पहली बार पैसा कमाने के लिए नौकरी करना। पहले तो सिर्फ जबान हिलाने के साथ ही फरमाईश पूरी हो जाती थी। परिवार की तरफ से आगे भी रुपये पैसे के लिए मनाही नहीं थी, पर आप कमाई और बाप कमाई के फर्क का अहसास हो रहा था। नई जिन्दगी का शानदार आगाज हो गया था। पढ़ाई के बाद में जिन्दगी का पहला और नया काम। पूरे दिन लगातार काम करने के बावजूद भी थकान नहीं होती। सीखने की लगन और उत्साह के साथ ऑफिस का पूर्ण सकारात्मक माहौल। शाम को घर जाने के बाद भी कुछ ना कुछ करने का मन करता था।

महीना पूरा हुआ और जीवन की पहली कमाई हाथ में आई। खुशियाँ तो अपने उफान पर थी। जबर्दस्त उत्साह का संचार था। सबसे पहले ऑफिस से निकलते ही टिंकूज़ का सैंडविच खाया और कोल्ड कॉफ़ी पी। कमरे में एक नया ए.सी. लगवा लिया था, उसका भी पेमेंट कर दिया। अगले दिन रविवार होने के कारण शुक्रवार को लगी हुई नई फिल्म सुबह वाले शो में ही निपटा दी। उसके बाद सयाजी होटल में जाकर डटकर नाश्ता किया। घर आकर भर गर्मी में नए ए.सी. की ठंडी हवा में रजाई ओढ़कर जो सोये कि शाम कब हो गई पता ही नहीं चला। फटाफट तैयार होकर शाम को एक दूसरी फिल्म निपटा दी और रात को आते समय रेडिसन में खाना खाया। खुद की और दूसरे की बनाई हुई रोटी में आज फर्क समझ आया। जीवन का वास्तविक आनंद आज ही लिया।

जिन्दगी अपने रफ़्तार पर दौड़े चली जा रही थी। एक दिन सुबह – सवेरे ही सुरभि की दीदी और जीजाजी घर आए। उन्होंने बताया कि दीदी के दूर के रिश्ते के देवर, निशांत ने हाल ही में आई.ए.एस. की परीक्षा पास की है। वो दीदी की शादी में सुरभि से मिला था। निशांत के परिवार को सुरभि बहुत पसंद है और वे ये रिश्ता पक्का करना चाहते हैं। तीनों सहेलियाँ भौचक्की रह गई। ये क्या हो गया, अभी तो जिन्दगी की शुरुआत हुई है और लगाम लगाने की बात की जा रही है। सुरभि ने तो साफ मना कर दिया।

  • दीदी, सुन लो, अभी दो साल तो कुछ कहना ही मत। मुझे अपने पैरों पर खड़ा हो लेने दो। जीवन में अभी बहुत कुछ सीखना बाकी है। बिलकुल भी तंग ना करना। सुरभि बोली।

उसके तेवर देखकर एक बार तो दीदी और जीजाजी को लगा कि कहाँ बर्र के छत्ते में हाथ डाल दिया है। वे कुछ रुंआसे हो गए। अर्पिता और कोमल भी वहीं थी। सारी बात समझने के बाद वे दोनों कमरे से निकलकर कुछ विचार – विमर्श करने लगी। पुनः कमरे में आकर उन्होंने दीदी और जीजाजी को कहा कि वे कहीं मार्केट में घंटे – दो घंटे में घूमकर आएँ, वे दोनों सुरभि से बात करेंगी।

  • अब तुम दोनों मुझे समझाओगी? सुरभि बोली
  • देख सुरभि, जीवन में शादी एक महत्वपूर्ण मुकाम होता है। अर्पिता ने कहा।
  • आज नहीं तो कल, कभी ना कभी तो हमें और घर – परिवार छोड़ना ही पड़ेगा। कोमल बोली।

सुरभि के कुछ समझ नहीं आया। जीवन में पहली बार ऐसा मौका आया कि तीनों में दो सहेलियाँ एक तरफ और एक सहेली दूसरी तरफ थी।

  • ज्यादा तेज़ मत चलो, मैं सब समझ रही हूँ। सिर्फ तुम दोनों ही जिन्दगी के भरपल्ले मज़े लेना चाहती हो और मैं घर परिवार के झमेले में पड़ जाऊँ? बिलकुल नहीं। सुरभि ने कहा।
  • देख ऐसी बात नहीं है। अभी की जिन्दगी अभी की है और शादी के बाद की जिन्दगी अलग है। क्या शादी के बाद जीवन की मौज – मस्ती ख़त्म हो जाती है? अर्पिता ने सुरभि से पूछा?
  • मैं सब समझ रही हूँ। लगता है कि दीदी और जीजाजी ने तुम दोनों को अलग से कुछ समझा दिया है। अब इस विषय पर कोई बात नहीं होगी। चलो जल्दी तैयार हो जाओ, ऑफिस के लिए देरी हो रही है। सुरभि ने कहा।
  • मैंने पहले ही एच. आर. मेम को मैसेज कर दिया है कि हम तीनों ही आज छुट्टी पर रहेंगी, कोई पारिवारिक कार्यक्रम है। कोमल ने कहा।
  • क्या…..? मुझ से पूछे बगैर ही मेरी भी छुट्टी ले ली? हे भगवान् ये क्या हो रहा है, मेरी तो कुछ समझ में नहीं आ रहा है। शादी की बात मेरी चल रही है और उतावली ये दोनों हुए जा रही है। चाय से ज्यादा केतली गरम? सुरभि बोली
  • देख सुरभि, समझने की कोशिश कर। ऐसे रिश्ते दुबारा नहीं आते हैं। तेरे पापा प्रथम श्रेणी ऑफिसर, तेरे जीजाजी आई.पी.एस. ऑफिसर और तेरे होने वाले पति कलेक्टर। और क्या चाहिए तुझे? तेज हम चल रहे हैं या फिर तू। ज्यादा शाणी मत बन। और कौन सी तुरंत शादी हो रही है। तेरी इच्छा के अनुसार लड़के वालों से बात करके छह – आठ महीने आगे का रिश्ता तय करवा देंगे। अर्पिता बोली।

सुरभि अवाक् से अर्पिता को देखने लगी। ये तो मम्मी – दीदी की भाषा बोल रही है। वो बात को टालते हुए पानी पीने के बहाने उठकर वहाँ से चली गई। अर्पिता और कोमल की आँखें मिली और ऐसा लगा कि पहला पड़ाव हासिल कर लिया है। सुरभि अधमुंदी आँखों से पलंग पर लेट गई। ये क्या हो रहा है? उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था। शादी करना क्या सामाजिक जोर-जबरदस्ती है? मैं क्यों परिवार और सहेलियों के दबाव में आऊँ? किन्तु मन ने फिर करवट ली। वो अब बड़ी हो गई थी। सामाजिक ऊँच – नीच और शादी का महत्व उसे समझ आ रहा था। कुँवारी जिन्दगी को कहीं ना कहीं विराम देना तो है ही। अगर मन – पसंद रिश्ता आया है तो अभी ही क्यों नहीं? इसी ऊहापोह में आँख कब लग गई, उसे पता ही नहीं चला।

‘सुरभि उठ, जल्दी उठ, दीदी – जीजाजी आए हैं।’ दोपहर के बारह बजे के आसपास कोमल उसको उठा रही थी। वो हड़बड़ी में उठी। पूरे दो घंटे गहरी नींद में सोई थी। दीदी और जीजाजी के साथ निशांत भी था। गौरा चिट्टा और हट्टा – कट्टा, ऊंचाई लगभग 5 फुट 10 इंच। बहुत खुबसूरत, किसी फिल्म के हीरो जैसा। अर्पिता और कोमल तो उसको देखती ही रह गई। सुरभि ने उन दोनों के भाव पढ़ लिए थे। यानी उनकी तरफ से बात एकदम पक्की।

जीजाजी बोले हम सब दोपहर का खाना खाने के लिए होटल चल रहे हैं। इन लोगों ने जैसे ठान ही रखी थी कि आज बात पक्की करवा के ही मानेंगे। सुरभि और निशांत की आँखें कई बार दो – चार हुई। नए रिश्ते में आकर्षण आ रहा था। कली खिल रही थी, होने वाले जीवनसाथी के साथ के कुछ ही पलों ने उसके जीवन में नया मोड़ दे दिया था। सुरभि के हाव – भाव और मनोदशा सब कुछ बयां कर चुकी थी। बस जबान पर शब्द लाने की देर थी। लज़ीज़ खाने और आइसक्रीम के बाद वो दीदी और जीजाजी के पैर छूकर बोली, ‘जैसा आप चाहते है उसके लिए मैं तैयार हूँ।’ दीदी – जीजाजी की पहल रंग लाई। एक नए रिश्ते ने आकृति ले ली।

परदे के पीछे से अर्पिता और कोमल मंद-मंद मुस्करा रही थी। ये देखकर सुरभि ने तकिया उठाया और दोनों के पीछे दौड़ी। ये दृश्य देखकर सभी ने बहुत आनंद लिया। दिवाली के बाद, देवउठनी ग्यारस के पहले ही सावे में निशांत और सुरभि का लगन हो गया।

कलेक्टर की पत्नी को क्या कहते हैं? अर्पिता और कोमल का मन कैसा हो रहा था? ये पाठक ही सोचे तो बेहतर है।


रक्त बंधन

मेयो कॉलेज, अजमेर के बहुत मेघावी छात्रों में भुवन का नाम शुमार हुआ था। इतनी कम उम्र में निशानेबाजी में उसने भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए एशियन गेम्स में हिस्सा लिया था। इसी के साथ बारहवीं की परीक्षा में आज तक के सर्वाधिक नंबर प्राप्त करने का भी उसने रिकॉर्ड तोड़ा था। भुवन का आर्मी में बड़ा अफसर बनकर देशसेवा करने का लक्ष्य था। इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर उसने एन। डी। ए। में प्रवेश लिया। वहाँ पर भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हुए सफलता के परचम गाड़ दिए। भुवन का आर्मी में लेफ्टिनेंट के पद पर चयन हो गया और उसकी इच्छा के अनुरूप, उसे पहली पोस्टिंग कश्मीर के बारामुला सेक्टर में ही मिल गई।

ज़ीनत अपने पापा की लाड़ली, चहेती और इकलौती बेटी थी। कोई भाई नहीं था। वो एक खुशमिजाज लड़की थी। उसको घूमने फिरने का बेहद शौक था। थोड़े दिन की छुट्टियाँ मिली नहीं कि पापा – मम्मी के साथ घूमने के लिए निकल जाती। पूरे भारत के साथ वो विदेश भी घूम चुकी थी। ये तो एक ऐसा शौक है जिसमें की हमेशा ही बाहर जाने की लालसा बनी रहती है। उसकी कॉलेज की पढ़ाई भी आखिरी मुकाम पर थी। आखिरी सेमिस्टर ख़त्म होने के तुरंत बाद उसका अपनी दो सहेलियों और यूथ होस्टल के अन्य साथियों के साथ अमरनाथ यात्रा पर जाने का कार्यक्रम बना हुआ था।

उनका ग्रुप ट्रेन से जम्मू और उधमपुर पहुँचा। वहां से बस द्वारा श्रीनगर पहुँचे। रात्रि विश्राम वहीँ पर था। कश्मीर के बारे में कहते हैं कि स्वर्ग कहीं है तो बस यहीं है, यहीं है और यहीं है। बादलों और आकाश को चीरते हुए ऊँचे वृक्षों से आच्छादित हरी – सफ़ेद पहाड़ियाँ और वे भी कहीं – कहीं बर्फ से ढकी हुई। दूर – दूर तक नज़र डालो तो अलग – अलग रंगों के दिखने वाले ये पहाड़ मन को सुखद अहसास देते हैं। ये अनुभव वहाँ पर जाने और प्रकृति से साक्षात्कार करने पर ही महसूस होता है। ईश्वर ने कश्मीर में जो सौंदर्य उड़ेला है, वो शायद ही दुनिया के किसी अन्य स्थान पर हो। मन में घुमड़ – घुमड़कर कर एक ही विचार आता है कि ईश्वर के इतने नजदीक रहने वाला कोई बाशिंदा आतंकवादी गतिविधियों में कैसे लिप्त हो सकता है?

अगले दिन सावन की पूर्णमासी यानी रक्षाबंधन का त्यौहार था। ज़ीनत को शुरू से ही एक भाई की कमी महसूस होती थी। खासकर रक्षाबंधन के दिन तो वो कुछ ज्यादा ही मायूस रहती थी। सुबह स्नान – ध्यान के पश्चात् पूरा समूह बालताल के लिए बस से निकला। बेस कैंप पर कुछ समय विश्राम करने और लंगर में प्रसाद लेने के पश्चात् अमरनाथ यात्रा के अगले पड़ाव के लिए पैदल चल पड़े। एक दूसरे को छेड़ते और चुहलबाजी करते हुए आधा रास्ता कब निकल गया पता ही नहीं चला। उनके ठीक आगे चल रहे समूह में अचानक कोलाहल मचा। ध्यान दिया तो देखा कि लगभग 8 – 10 बड़ी – बड़ी दाढ़ी बाले व्यक्ति हवा में बंदूकें लहराते हुए उनकी और ही दौड़ते चले आ रहे थे। कोई चिल्लाया – दौड़ो, आतंकवादी आ गए है। हमला करने वाले है। आतंकवादियों ने इधर उधर भागते हुए यात्रियों पर अंधाधुन्द गोलियाँ चलाना शुरू कर दी। आपाधापी मच गई और सभी लोग चट्टानों के पीछे छुपकर अपनी – अपनी जान बचाने को भागे। यात्रियों की सुरक्षा में लगे भारतीय सेना के जवानों ने थोड़ी देर में ही मोर्चा संभाल लिया। कुछ ही देर में सेना की एक टुकड़ी लेफ्टिनेंट भुवन के नेतृत्व में आ पहुंची।

आतंकवादी भी भारी तैयारी के साथ आए थे। दोनों और से गोलियाँ चलने लगी। सेना की दूसरी टुकड़ी ने आतंकवादियों को पीछे की तरफ से घेर लिया। भयानक  संघर्ष और लड़ाई शुरू हो गई। अमरनाथ के यात्री बड़ी – बड़ी चट्टानों के पीछे छिपे हुए थे। भारतीय सैनिकों ने भी उनके साथ ही मोर्चा संभाला हुआ था। किसी के मुँह से आवाज भी नहीं निकल रही थी।

आतंकवादियों के हमला करते ही जब सभी लोग जान बचाने के लिए भागे तो ज़ीनत का पैर एक पत्थर पर पड़ा और वो लड़खड़ाकर एक छोटे गड्ढे में नीम बेहोशी की हालत में गिर गई। चूँकि सभी लोग अपनी – अपनी जान बचाने में लगे थे, किसी को भी उसका ध्यान नहीं आया। हालात ऐसे बने की एक तरफ भारतीय सेना, दूसरी तरफ आतंकवादी और बीच में एक गड्ढे में गिरी हुई ज़ीनत। थोड़ी देर में जब ज़ीनत की नीम बेहोशी टूटी और उसने थोड़ा सा सिर उठाया तो एक गोली दनदनाती हुई उसके सिर के ऊपर से निकल गई। एक झटके से वो झुककर नीचे लेट गई। उसको समझ आ गया कि जरा सी भी गलती उसके सिर के परखच्चे उड़ा देगी। इसी बीच उनके समूह के एक सदस्य की उस पर नज़र पड़ गयी और वो जोर से चिल्लाया – ज़ीनत।।।। ज़ीनत वो रही, वो वहाँ फंसी पड़ी है। लेफ्टिनेंट भुवन ने भी ये आवाज सुनकर ध्यान से देखा कि कोई लड़की गोलियों की आवाजाही के बीच में फँसी हुई है। दोनों तरफ की गोलियां उसके सिर के ऊपर से ही निकल रही है।

गोलीबारी भयानक तेज़ हो चुकी थी। पीछे से सेना की एक और टुकड़ी आ गई। ये आत्मघाती आतंकवादी थे जो की तीन तरफ से घिरे चुके थे, पर आर-पार की लड़ाई के उद्देश्य से आए लगते थे। ज़ीनत की पोज़ीशन आतंकवादियों की हद में थी और उनके पीछे हटने की स्थिति में ही उस तक पहुँच पाना संभव था। क्षण – प्रतिक्षण ये लग रहा था कि ज़ीनत को कभी भी गोली लग सकती है। सेना के अन्य जवानों ने यात्रियों को पीछे हटाते हुए उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले लिया। किसी के भी गले से आवाज नहीं निकल रही थी। सभी मन ही मन बम भोले करते हुए ईश्वर से ज़ीनत की जान बचाने की कामना कर रहे थे। शिवभक्त ज़ीनत को रूद्र पुराण कंठस्थ याद था। वो मन ही मन उसका जाप कर रही थी।

भुवन को सूझ नहीं पड़ रहा था कि ज़ीनत तक कैसे पहुँचकर उसे सुरक्षित लाया जाए। आतंकवादियों को भी ज़ीनत के फँसे होने की जानकारी हो गई थी। वो भी मोर्चा संभालते हुए अपनी जगह से थोड़ा थोड़ा आगे उसकी की तरफ बढ़ रहे थे। शायद उनका लक्ष्य ज़ीनत को बंधक बनाकर भारतीय सेना पर दबाव बनाते हुए सुरक्षित निकल भागने का था। आतंकवाद पर एक मोटी चोट पहुचाने  का मौका चूक सकता था। भुवन की ख्याति सेना में एक शार्प शूटर की थी। तभी उनके मन में बचपन से सुनते आ रहे महाभारत के अर्जुन की धनुर्विद्या, पांचाल में द्रौपदी के स्वयंवर, नीचे कढ़ाव में खौलता तेल, ऊपर घुमती हुई मछली और उसकी आँख की कहानी घूम गई। स्वयंवर में तो होने वाले पति – पत्नी का रिश्ता था पर यहाँ कश्मीर की धरती पर इन परिस्थितियों में कौनसा रिश्ता आकार लेने वाला था, पति – पत्नी का या भाई – बहन का?

(आगे क्या हुआ? क्या ज़ीनत की जान बच गई? उन आतंकवादियों का क्या हुआ? लेफ्टिनेंट भुवन को पत्नी मिली या बहन? ये सब जानने के लिए ‘सैरन्ध्रि’ का सितम्बर 2017 का अंक देखना ना भूलें।)

लेफ्टिनेंट भुवन ने अपनी सबसे बेहतरीन रायफल बुलवाई जिसे वो ‘शोले’ कहता था। इसके पहले तक तो जो भी निशाने लगाए, वो शूटिंग रेंज के अन्दर नकली पुतलों पर ही लगाए थे। पहली बार जीवन में वास्तविकता का सामना होने जा रहा था। निशाना दूर का था पर असंभव नहीं था। तभी भुवन ने देखा कि एक आतंकवादी खुले मैदान से होते हुए ज़ीनत के काफी नजदीक पहुँच रहा है। कुछ ही देर में वो उसको कब्जे में ले सकता है। आसपास में खड़े भुवन के सभी साथी साँस रोककर ये घटनाक्रम देख रहे थे। भुवन ने पोज़ीशन लेकर, ध्यान लगाते हुए उस आतंकवादी पर निशाना साधकर तड़ से गोली चला दी। असंभव – संभव हो गया। पहली ही गोली उस आतंकवादी के भेजे को फोड़ते हुए निकल गई। भुवन के साथी ख़ुशी के अतिरेक में चिल्ला उठे। उसने ने सबको शांत करते हुए संयम बरतने को कहा।

आतंकवादी अपने एक साथी को गवांकर थोड़ा सा पीछे हटे, पर मोर्चा नहीं छोड़ा। उनको अब अपनी जान बचाने और सुरक्षित निकलने के लिए कैसे भी करके ज़ीनत तक पहुँच कर उसको कब्जे में लेना था। उनको समझ में आ गया था कि भारतीय सेना को उनकी योजना की जानकारी मिल गई है। वो दो और तीन लोगों की टोलियों में बंट गए। कुछ देर के लिए लड़ाई का लक्ष्य ही बदल गया। आतंकवादी ज़ीनत को कब्जे में लेना चाहते थे, जबकि भारतीय सेना उसको सुरक्षित रहने देना चाहती थी। ज़ीनत का आतंकवादियों के कब्जे में रहना कई अनर्थकारी कूटनीतिक परिणामों को जन्म दे सकता था। तभी दो आतंकवादी मैदान से होते हुए उस गड्ढे की तरफ बढ़े जिधर ज़ीनत गिरी हुई थी। उनको बाकी आतंकवादियों ने कवर देना शुरू किया। वो सभी लोग धीरे – धीरे आगे बढ़ रहे थे। एक बार पुनः ‘शोले’ से शोले बरसाने की जरुरत थी। भुवन ने वही पोज़ीशन और वही ध्यान मुद्रा में ईश्वर का नाम लेकर निशाना साधते हुए ट्रिगर दबाकर गोली चला दी। एक और आतंकवादी का भेजा उड़ गया। शीघ्र ही भुवन ने अगले आतंकवादी का निशाना लेकर एक बार पुनः गोली चलाई और वो भी ढेर हो गया। बाकी बचे हुए आतंकवादी विचलित होने लगे थे। ज़ीनत तक पहुँचने के लिए उन्हें कुछ दुरी खुले में चलना था। इस खुली दुरी में चलकर ही उनके तीन साथी जान गवां चुके थे। ये उनके लिए भी सोच से बाहर था कि ना दिखने वाली इतनी दुरी से भी कोई व्यक्ति इतना सटीक निशाना लगा सकता था।

आतंकवादियों और उनके पनाह्गारों के बीच की बातचीत भारतीय सेना के पकड़ में आ गई। आतंकवादियों ने निराशा झलकाते हुए अपने आकाओं को घटनाक्रम सुनाया। उधर से स्पष्ट निर्देश दिए गए कि उस लड़की को जिन्दा ही पकड़ना है अन्यथा भारतीय सेना सभी को खत्म कर देगी। दुश्मन की इस योजना की जानकारी पाकर भुवन के भी रोंगटे खड़े हो गए। उस पर बस अब ज़ीनत को सुरक्षित निकालने का जुनून सवार हो गया। समय निकलता जा रहा था और तीन आतंकवादियों को ख़त्म कर देने की जानकारी उच्च स्तर के अधिकारियों को पहुँच चुकी थी। नई दिल्ली में सेना के कार्यालय स्थित ‘युद्ध कक्ष’ (War Room) में प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री, तीनों सेनाद्यक्ष, रक्षा सचिव, रक्षा सलाहकार इत्यादि सभी हाज़िर थे। अन्तरिक्ष में स्थित भारतीय सेटेलाइट के माध्यम से संपूर्ण दृश्य सामने दिख रहे थे। उत्तेजनापूर्ण सन्नाटा पसरा हुआ था। ज़ीनत का आतंकवादियों के कब्जे में जाना लम्बे कूटनीतिक दुष्परिणाम दे सकता था।

अनुमानों के अनुसार अब वहां पर पाँच या छह आतंकवादियों के होने की संभावना थी। उनकी नई योजना के अनुसार इस बार सिर्फ एक आतंकवादी वृक्षों से समूह के पीछे से निकल कर ज़ीनत की तरफ दौड़ पड़ा। बाकी आतंकवादी उसे कवर दे रहे थे। भुवन ‘शोले’ को हाथ में लेकर निशाना लगाने को तैयार बैठा था। वो आतंकवादी चट्टानों के पीछे से निकलकर और सीधा ना आते हुए सर्पाकार दौड़ने लगा। भुवन के लिए ये ही तो परीक्षा की घड़ी थी। उसकी रायफल से गोली चली और आतंकवादी के सीने में उतर गई। चारों तरफ एक बार पुनः सन्नाटा पसर गया। सेना की अन्य टुकड़ियाँ और उनके नायक सामने मैदान में होते हुए इस घटनाक्रम, स्वयं के लिए मोबाइल सेट पर आते हुए आदेश, भुवन को दिए जाने वाले निर्देश, कान और आँख खोलकर सुन – देख रहे थे। उनकी टुकड़ियाँ भी गोलीबारी करते हुए आतंकवादियों पर अपना घेरा मजबूत करते हुए शिकंजा कसती जा रही थी।

अचानक किसी वरिष्ठ आफिसर की मोबाइल सेट पर आवाज आई – लेफ्टिनेंट भुवन, ज़ीनत को बचाने का तुम्हारा लक्ष्य है फिर भी तुम्हें आदेश दिया जाता है कि विपरीत परिस्थितियों में प्लान बी के अंतर्गत ज़ीनत को गोली मार दी जाए। भुवन के लिए ये चौंकाने वाला आदेश था। चौथे आतंकवादी के मारे जाने के बाद अब पाँच आतंकवादी और बचे थे। वो लोग दो, दो और एक के समूह में बंट गए। वो भी जानते थे कि ज़ीनत के सुरक्षित रहने में ही उनकी भलाई है। अचानक तीन तरफ से वृक्षों के झुरमुट से निकलकर, एक – एक आतंकवादी गोलियां चलाते हुए ज़ीनत की तरफ भागे। भुवन ऐसे ही किसी आक्रमण का मन में सोचकर बैठा था। पर्याप्त समय था। ज़ीनत के सबसे नजदीक पहुँचे आतंकवादी को उसने सबसे पहले उड़ा दिया। तुरंत ही दूसरे पर निशाना लगाया किन्तु वो आतंकवादी जमीन पर बैठ गया और बैठे – बैठे ही आगे बढ़ने लगा। भुवन का निशाना चुक गया। वो दोनों आतंकवादी ज़ीनत के नजदीक आते जा रहे थे। तीसरा आतंकवादी दौड़ता हुआ आ रहा था। अच्छा निशाना था और भुवन ने अपनी रायफल का निशाना उसकी तरफ करके ट्रिगर दबा दिया। तीसरे का भी भेजा उड़ गया।

किन्तु।।।।। किन्तु वो दूसरा आतंकवादी बैठे – बैठे और आखिरी की कुछ दुरी लेटे – लेटे पार करते हुए ज़ीनत के नजदीक पहुँच ही गया। उसने ज़ीनत के सिर पर अपनी रायफल तान दी। बाकी दो आतंकवादी भी इधर – उधर से निकलकर उन दोनों के नजदीक आ गए और रायफल तानकर ज़ीनत को गोल घेरे में ले लिया। वे लोग वहाँ से दूसरी तरफ चलने लगे। युद्धस्थल से लेकर नई दिल्ली तक सबको साँप सूंघ गया, सन्नाटा पसर गया। दूसरी ओर कहीं पर पटाखों की आवाज गूंजने लगी। प्लान बी के तहत लेफ्टिनेंट भुवन चाहते तो अभी भी एक बार में एक आतंकवादी को गोली मार सकते थे। ऐसे में बाकी दो आतंकवादी ज़ीनत को गोली मार देते। चूँकि चारों तरफ से सेना का घेरा था, तो फिर बाकी बचे दो आतंकवादियों को सेना मार देती। फिर भी ज़ीनत को बचाने की कोशिश तो करनी ही थी।

लेफ्टिनेंट भुवन ने अपनी तरफ की टुकड़ी को गोलीबारी रोकने का आदेश दिया। विपरीत दिशा में स्थित टुकड़ी को उन्होंने ज़मीन पर गोली चलाने का आदेश दिया। यानी मारेंगे भी नहीं और जाने भी नहीं देंगे। भुवन का उद्देश्य उन सबको अलग – अलग करने का था। उधर की दिशा से चली गोलियों में से एक गोली अचानक ही एक आतंकवादी के पैर में लगी। वो वहीँ गिर पड़ा और घायल हो गया। बाकी दो को समझ ही नहीं आया कि क्या करें? ज़ीनत को गोली मारने के बाद तो मरना ही है। किन्तु जिन्दा रखें तो भाग निकलने की कुछ उम्मीद है। वो दोनों, उस  घायल आतंकवादी को वहीँ छोड़कर आगे बढ़ने लगे। नीचे गिरे हुए घायल आतंकवादी के हाथ में अभी भी रायफल थी। उसने रायफल की बची हुई गोलियां अपने दूसरे साथी पर चला दी। दूसरा वाला वहीँ ढेर हो गया। पहले वाले आतंकवादी ने अपनी जान बचाने के लिए उस घायल आतंकवादी को खुद की रायफल से भुन दिया। उसको ये समझ थी कि अगर उसने ज़ीनत को गोली मारी तो भारतीय सेना भी उसका काम तमाम कर देगी। उसने ज़ीनत को कुछ भी नहीं होने दिया और वो उसके भरोसे ही सुरक्षित निकलने की उम्मीद में आगे बढ़ने लगा।

लेफ्टिनेंट भुवन ने सभी टुकड़ियों को गोलीबारी रोकने का आदेश दिया। वही ‘शोले’ और उसके शोले, वही पोज़ीशन और ध्यान मुद्रा। ट्रिगर पर दबाव पड़ने के साथ ही गोली चल गई। सीधी एक बचे हुए आतंकवादी के भेजे को उड़ाते हुए निकल गई। उसका गोली से फटा हुआ चेहरा ज़ीनत को ऊपर से नीचे तक खून में नहला गया। ये दृश्य देखकर वह बेहोश हो गई। लेफ्टिनेंट भुवन ने सभी टुकड़ियों को धीरे – धीरे आगे बढ़ने का निर्देश दिया। कोई अन्य जिन्दा आतंकवादी भी वहां पर हो सकता था। उनकी टुकड़ी सबसे आगे रहते हुए कुछ देर में घटना स्थल पर पहुँच गई। ज़ीनत बेहोश पड़ी थी। भुवन ने पानी बुलवाकर उसके चेहरे पर छींटे मारे। इस बीच एक जवान ने ज़ीनत के शरीर से रक्त और मांस के टुकड़े साफ़ कर दिए। कुछ देर के प्रयासों के पश्चात् ज़ीनत को होश आया और वो जोर से चीख पड़ी।

भुवन ने धीरे से कहा – बहन ज़ीनत, तुम सुरक्षित हो। आश्चर्यमिश्रित भावों से ज़ीनत ने भुवन की तरफ देखा। उसे लगा जैसे कि उसका खोया हुआ भाई मिल गया है। ईश्वर ने भाई से मिलवाया तो वो भी इन कश्मीर की वादियों में। अधिकतर सैनिकों के हाथों पर उनकी बहनों द्वारा भेजी गई राखियाँ बंधी हुई थी। ज़ीनत की आँखों से अश्रुधारा बह निकली। उसके मन के भावों को समझकर एक सैनिक ने जेब से राखी निकालकर ज़ीनत की और बढ़ा दी। बड़े स्नेह के साथ उसने कांपते हाथों से भुवन की कलाई पर रक्षा सूत्र बांध दिया। वादी में चारों तरफ हर्षोल्लास की ध्वनि गूंजने लगी। नियति की करनी देखो। अर्जुन को धनुर्विद्या से पत्नी के रूप में द्रौपदी मिली और भुवन को निशानेबाजी से बहन के रूप में ज़ीनत मिली।

कश्मीर से नई दिल्ली होते हुए कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक, चारों ओर ख़ुशी की लहर दौड़ गई। सभी ओर पटाखे गूंजने लगे। दूसरी तरफ, जहाँ पर थोड़ी देर पहले पटाखे गूंज रहे थे वहां पर सन्नाटा पसर गया। लेफ्टिनेंट भुवन को भारत सरकार ने विशेष सम्मान दिया। सुरक्षित लौट आने के कारण ज़ीनत को भी बधाइयों के ढेर लग गए। भारतीय सेना द्वारा हमेशा के लिए भुवन को रक्षाबंधन पर विशेष अवकाश ज़ीनत को राखी बाँधने के लिए दिया गया। भाई – बहन के इस नए रिश्ते ने बहुत प्रसिद्धी पाई।


अनूठा संयोग

कहते हैं कि पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं – कुछ ऐसा ही रवि के साथ हुआ. जन्म के तुरंत बाद नर्स रवि को गोद में लेकर बाहर आई और उसके पापा के हाथ में देकर बोली – ‘बधाई हो, बेटा हुआ है’. पापा ने ध्यान से देखा और उसकी दादी को बोले – ‘माँ, देखो तो इसका ललाट कैसा चमक रहा है. कैसे आँखे फाड़ – फाड़ कर चारों तरफ देख रहा है.’ दादी ने तुरंत रवि को पापा की गोद से ले लिया और पापा को डपटने के अंदाज में बोली – ‘ शशश ….. चुप कर, ऐसा नहीं बोलते हैं.’  उन्होंने तुरंत अपनी आँखों में लगा हुआ काजल उंगली की किनोर पर लेकर रवि के माथे पर लगा दिया और कहा – ‘ हाँ, अब ठीक है.’

समय के गुजरने के साथ ही रवि बड़ा होने लगा. पापा केंद्रीय सरकार की सेवा में बहुत ऊँचे पद पर थे. पढ़ाई – लिखाई सर्वश्रेष्ठ स्कूल में हो रही थी. शुरू से ही होनहार होने के कारण सभी कक्षाओं में अधिकतम अंक प्राप्त होते थे रवि को. गायन – वादन के शौक के साथ ही अन्य विषयों में भी उसकी रूचि थी. ओजस्वी वक्ता के तौर पर रवि की स्कूल में खूब ख्याति थी. इन्हीं सब कारणों से वो शिक्षकों का चहेता था. हायर सेकेंडरी की पढाई के लिए रवि ने डटकर मेहनत की – क्या रात और क्या दिन, सब भूल गया. उसी के अनुरूप नतीजा भी आया. उसने पूरे दिल्ली प्रदेश में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया था. उसे दिल्ली के राज्यपाल ने विशेष पुरस्कार प्रदान किया. इससे उसके हौसले और लक्ष्य नई ऊचाइयाँ छूने लगे. 

रवि के ग्रेजुएशन के नतीजों ने दिल्ली विश्वविद्यालय में नया रिकॉर्ड बना दिया. दुगुनी मेहनत और उत्साह के साथ वो आई.ए.एस. की तैयारी में लग गया. इस समय रवि सिर्फ 19 वर्ष का था. इस परीक्षा में हिस्सा लेने के लिए 21 वर्ष की उम्र होना जरुरी होती है. एक परिचित ने रवि को समझाया कि कुछ लम्बे समय तक इस परीक्षा की तैयारी करने से सफलता पक्की हो जाती है. इसी को आधार बनाकर उसने प्राथमिक और मुख्य परीक्षा के लिए 23 वर्ष की उम्र का लक्ष्य रखा. आगे पूरे चार वर्ष का समय था. रवि ने ठान लिया कि आई.ए.एस. की परीक्षा में बैठकर प्रथम सौ स्थानों में चुनकर आना ही है. उसने बी. बी. ए. का भी फॉर्म भर दिया. बी. बी. ए. की पढ़ाई के साथ ही आई.ए.एस. की कोचिंग भी लगा ली. दो साल में इतनी कोचिंग ले ली कि नया कुछ बचता ही नहीं था. कोचिंग के संचालक के सुझाव पर रवि ने उन्हीं के संस्थान में अपने से बड़ी उम्र के दूसरे छात्रों को पढ़ाना शुरु कर दिया. इससे रवि को दूसरे परीक्षार्थियों के पढने के तरीके पता चलने के साथ ही उसकी स्वयं की परीक्षा की तैयारी भी होने लगी.

दूसरी तरफ, मेरठ की रहने वाली, मम्मी – पापा की लाड़ली शैली बचपन से ही पढ़ाई में होशियार थी. शतरंज उसका सबसे प्रिय खेल था और इस खेल में उसके सबसे प्रबल प्रतिद्वन्दी उसी की स्कूल के प्रिंसिपल थे. दोनों ही एक दूसरे बढ़कर थे. इसके साथ ही वो स्कूल की सबसे बेहतरीन वक्ता थी. वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में प्रथम आना उसका शगल था. यानी वो पूर्णतया बेहतरीन प्रतिभाशाली लड़की थी. शैली की प्रतिभा को देखते हुए प्रिंसिपल महोदय ने उसके लिए आई.ए.एस. का लक्ष्य निर्धारित कर दिया और स्कूल स्तर पर ही उसने इसकी तैयारियां शुरू कर दी थी.

उत्तर प्रदेश के मेरठ डिवीज़न में स्कूल स्तर पर टॉप करने के बाद वो दिल्ली यूनिवर्सिटी से चार साल का बी.बी.ए. का कोर्से करने के लिए दिल्ली आ गयी. शैली की प्रतिभा को देखते हुए यूनिवर्सिटी ने उसे विशेष अनुमति के अंतर्गत तीन साल में ही कोर्स ख़तम करने की इजाजत दे दी. जबरदस्त प्रदर्शन करते हुए उसने यहाँ भी सफलता के परचम लहरा दिए. उसकी योग्यता को देखते हुए वहाँ पर ही सहायक अध्यापक (टीचिंग असिस्टेंट) की नौकरी दे दी गई. यूनिवर्सिटी के इतिहास में पहली बार इतनी कम उम्र की लड़की को अध्यापन कार्य के लिए रखा गया. मजेदार बात ये थी कि पढने वाले सभी छात्र शैली से बड़ी उम्र के थे. 

शैली का लक्ष्य तो आई.ए.एस. की परीक्षा पास करने का था. इसके लिए उसने एक कोचिंग क्लास में प्रवेश ले लिया. उसका समय भी बहुत अच्छे से सेट हो गया. सुबह यूनिवर्सिटी में बी.बी.ए. की कक्षा लेना और दोपहर में आई.ए.एस. की कोचिंग के लिए जाना. फिर शाम को देर रात तक दोनों विषयों की तैयारियांँ करना. 

यूनिवर्सिटी में सुबह बी.बी.ए. की कक्षा लेने के बाद दोपहर में आई.ए.एस. की कोचिंग के लिए शैली पहली बार इंस्टिट्यूट आई. वहाँ पर उसे एक लड़के ने दूर से हाथ हिलाकर अभिवादन किया. पहले तो समझ में नहीं आया कि यहाँ कौन परिचित आ गया? दिमाग पर जोर दिया तो याद आया कि ये लड़का तो उसकी बी.बी.ए. की कक्षा का छात्र है. उसने सोचा कि शायद वो भी आई.ए.एस. की कोचिंग ले रहा है, इसलिए यहाँ आया है. वो कक्षा में पहुंची तो थोड़ी देर में उसके शिक्षक आए. वह उन्हें देख चौंक गई और मन ही मन बोली – अरे… ये तो वो ही छात्र है जिसे में पढ़ाती हूँ. इसका मतलब तो ये हुआ कि सुबह में इसे पढ़ाउंगी और दोपहर में ये मुझे पढ़ायेगा!

वो सुबह का छात्र या शाम का शिक्षक कोई और नहीं रवि ही था. उसे भी कुछ समझ नहीं आया. वो भी मन ही मन सोचने लगा कि मेरी सुबह की शिक्षिका दोपहर की छात्रा बन गई. कोचिंग क्लास ख़त्म होने के बाद दोनों ने एक दूसरे का परिचय प्राप्त करके अभिवादन किया. इस अनोखे संयोग पर दोनों को बहुत आनंद आया. शैली का शरारती मन जाग उठा. अगले दिन बी.बी.ए. की कक्षा में उसने रवि को लक्ष्य बनाकर पूरी कक्षा को खूब हंँसाया. वो भूल गई कि दोपहर बाद उसे भी रवि की कक्षा में जाना है. दोपहर में रवि ने विपरीत दिशा में चलते हुए पूरी कक्षा से अलग – अलग ढेर सारे सवाल किए. उसने ऐसे सवालों का चयन किया था जो कि मैनेजमेंट से सम्बंधित थे और जिनके जवाब शैली को रटे हुए थे. सभी प्रश्नों का उत्तर अकेली शैली देते हुए कक्षा में छा गई. उसे खूब प्रशंसा और तालियाँ मिली. शैली को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि सुबह की कक्षा का बदला लेने का ये कैसा तरीका है? सम्मान के बोझ तले दबाकर रवि ने उसके प्राण हर लिए. घर आकर वो रात भर सो नहीं पाई.

अगले दिन यूनिवर्सिटी में कक्षा के पहले ही वो क्लास रूम के बाहर रवि से मिली. सजल आँखों से उसने गए कल की उसकी भूमिका के लिए माफ़ी मांगी. दोनों दोस्त बन गए. दिन भर में समय के अनुसार उनकी भूमिकाएँ बदलती रहती. उन दोनों की इन भूमिकाओं की सब तरफ चर्चा होने लगी. इनसे बेखबर दोनों सहयोगी अपने – अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए तैयारियांँ करते रहे. एक दूसरे का साथ पाकर उनका आपसी विश्वास और नजदीकियांँ बढ़ने लगी. शनिवार, रविवार एवं अन्य सभी छुट्टी के दिन दोनों का साथ में ही समय गुजरता था. लगभग एक जैसी पारिवारिक पृष्ठभूमि होने के कारण कहीं पर भी कोई विरोध ना था. रवि कई बार शैली के घरवालों से मिल चुका था. शैली का रवि के घर पर भी आना जाना था. इन सबके बावजूद दोनों अपने-अपने लक्ष्य को पाने के प्रति न सिर्फ अडिग थे, बल्कि परिस्थितियों ने उनका उत्साह दुगुना कर दिया था.

एक तरफ तो रवि और शैली का कम उम्र में प्रथम प्रयास दूसरी तरफ उम्र में काफी बड़े, लाखों प्रतिभागी. अपने आपको मानसिक तौर पर तैयार करना और परीक्षा में हिस्सा लेना एक मुश्किल कार्य था. रवि को उसके पापा से विरासत में पाई हुई आध्यात्मिक जीवन जीने की कला ने मानसिक दबाव, कठिनाई या अन्य कोई नकारात्मकता हावी ना होने दी. शैली भी जीवट स्वभाव की थी. यदि हौसले बुलंद हो तो मंजिल को मुकाम बनते देर नहीं लगती है. आई.ए.एस. की प्राथमिक और मुख्य दोनों परीक्षाएं बहुत अच्छे नंबर और ऊँचे स्थान से पास कर ली. साक्षात्कार में अभूतपूर्व प्रदर्शन के पश्चात उन दोनों ने जीवन की सर्वश्रेष्ठ सफलता हासिल की. दोनों ने प्रथम सौ सफल परीक्षार्थियों में स्थान लेकर आई.ए.एस. अवार्ड प्राप्त किया.

इतना सब जानने के बाद भी क्या आप ये जानना चाहतें है कि शैली रवि की जीवन संगिनी बनी या नहीं? इसका उत्तर पाठक स्वयं दें.

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