अगस्त 1947, विभाजन का समय और लाहौर शहर। पैसे वाले हिंदुओं की एक बस्ती। चारों और से जोर-जोर से समूहों में चीखने चिल्लाने की आवाजें आ रही थी – मारो, मारो। अल्लाहो-अकबर। बीच-बीच में हर हर महादेव का घोष भी सुनाई दे जाता था। बच्चे माँ की गोद में दुबके पड़े थे। माँओं की सिसकियाँ रोके नहीं रुकती थी। पुरुष वर्ग को तो जैसे काठ मार गया था। कुछ भी सूझ नहीं पड़ रहा था। आँसू पत्थर बन कर आँखों के पीछे दुबके पड़े थे।
हे ईश्वर, ये कैसी परिस्थिति है। पीढ़ियाँ निकल गईं, इसी लाहौर में। अब ये ही बेगाना हो गया है? हम हिन्दू हैं तो काफिर हो गए। अभी कलमा पढ़ लें तो वापस इंसान हो जाएंगे। हे ऊपरवाले ये कैसा तेरा इंसाफ है? जग्गी उसकी माँ की गोद में सो रहा था। जग्गी की माँ लाजो, अचानक कुछ याद करके रोने लगी।
ओए, चुप कर। जग्गी के पिता – भगतजी, लाजो पर चिल्लाये। पहले ही तो कुछ सूझ नहीं पड़ रहा है और तू रोए जा रही है। तभी, भगतजी की भी रुलाई फुट पड़ी। -लाजो, हम यहाँ से कैसे निकलेंगे? बॉर्डर तक पहुचेंगे या नहीं, आगे कहाँ जाएंगे?
लाजो पास के ही लाड़काना से ब्याह कर आई थी, पिताजी बड़े व्यापारी थे और ससुर का लंबा चौड़ा कारोबार था। भगतजी ने अपने पिता का कारोबार सँभाल कर व्यापार को नई ऊँचाइयाँ दी थी। लाजो ने पति की आँखों में पहली बार लाचारी के आँसू देखे। अपने आप को सम्हालकर वो बोली -लालाजी, चिंता ना करो, अच्छे से जाएंगे और अच्छे ही पहुँचेंगे। इंदौर में दूर के रिश्ते की मूली भुवा रहती हैं। वहीँ चलेंगे। ईश्वर जो करेगा अच्छा ही करेगा।
तभी आवाज आई – भगतजी… जल्दी चलो। बॉर्डर तक जाने के लिए गाड़ी की व्यवस्था हो गई है। सिर्फ जरुरी सामान ले लो।
बसी बसाई गृहस्थी उजड़ रही थी। अचानक लाजो धीरे से बोली -लालाजी, बुरा ना मानो तो एक बात कहूँ?
हाँ जल्दी बोल -भगतजी ने उखड़कर जवाब दिया।
मेरी हाथ वाली सिलाई मशीन जरूर साथ में ले लेंगे। वक्त पड़े काम आएगी। लाजो बोली।
भगतजी के कानों में तो जैसे सीसा घुल गया। उनकी रूलाई फट् पड़ी। फुट-फुट के रोने लगे और मन ही मन कहा -जिन हाथों ने आज तक सुई नहीं पकड़ी और वो लोगों के कपडे सिलने को तैयार है? हे भगवान, ये कैसा न्याय है?
लाजो बोली -लालाजी, अपने आप को सम्हालो, आप ही दुःखी होंगे तो हमारा कौन ध्यान रखेगा?
पति, बच्चों, थोड़े गृहस्थी के सामान और सिलाई मशीन के साथ उन्होंने बॉर्डर पार की। रेलगाड़ी में बैठकर इंदौर तक का सफर बहुत कठिनाई से काटा। ना पीने को पानी और ना ही खाने का सामान। सिर्फ थोड़ा सा सत्तू, चने और नारियल। भगतजी और लाजो ने बच्चों की खातिर अपने पेट पर कपड़े बांध लिए थे। दोनों के मन में भविष्य के प्रति अज़ीब सी घबराहट थी।
इंदौर में मूली भुआ के अनचाहे मेहमान बने। लाजो की दूरदर्शिता काम आई। सिलाई मशीन घर गृहीस्थि का बड़ा सहारा बनी। भगतजी दिन में मार्केट में घूमकर कपड़े सिलने के आर्डर ले आते और लाजो रात-दिन काम करके, कपड़े सिलकर भगतजी को दे देती। काम चल पड़ा। आर्डर पुरे नहीं हो पा रहे थे भगतजी ने लाजो को पैर से चलने वाली मशीन लाकर दे दी।
धीरे धीरे लाजो भी थकने लगी थी। भगतजी ने उसकी मदद के लिए, पाकिस्तान से आए दूसरे परिवारों की महिलाओं को भी जोड़ लिया। सभी की लगन और उत्साह से धंधा जम गया। जग्गी जो अब जगदीश हो गए थे उन्होंने भी लाजो और भगतजी की मदद करते हुए पूरा व्यापार सम्हाल लिया।
दूरदर्शिता, लगनशीलता, एक सिलाई मशीन और कठिनाइयों से जूझने का जज़्बा व्यक्ति को मनचाही ऊंचाइयों तक पहुँचा सकता है।
(ये एक वास्तविक घटना है। भगतजी परलोक जा चुके हैं, लाजोजी 92 वर्ष की उम्र में कनाडा में जगदीश के बेटे अनिल के साथ रहते हुए अपनी पड़पोती लल्ली के साथ दिन भर खेलतीं है और पूरी स्वस्थ हैं। उनका इंदौर आना जाना लगा रहता है। लाजो- भगत का लगाया हुआ सिलाई मशीन का काम, आज एक बड़े उद्योग में बदलकर लगभग पाँच हजार परिवारों का सहारा है)