दुनिया का एकमात्र हिन्दु राष्ट्र – नेपाल है. यहाँ पर ही पशुपतिनाथ मंदिर स्थित है. पता था कि नेपाल भारत से सस्ता देश है. वहाँ पर भारत का रूपया भी चलता है. इसलिए बहुत समय से इच्छा थी कि इस पौराणिक और प्राचीन स्थान घूमने जाया जाए. परिवार के सभी सदस्यों और मन की हाँ हो तो कार्यक्रम बनने में कितना समय लगता है. ‘सैरंध्री यात्रा दर्पण’ को पूरा पढ़ लिया था अतः उसमें लिखे अनुसार कार्यक्रम बनाते गए और तैयारियाँ करते गए.
सबसे पहले सभी के अनुसार आने – जाने की तारीख तय की. इंदौर से सुबह निकलकर मुंबई या दिल्ली होते हुए काठमांडू जाना है. लौटते में वहाँ से दोपहर या शाम को निकलकर देर रात इंदौर पहुँचना है. समय और कम से कम के टिकिट एयर इंडिया के ही उपलब्ध थे, जो की ले लिए. काठमांडू में अच्छी होटल या एयर बीएनबी, इन दोनों में से चुनना था. एक अच्छा सौदा काठमांडू गेस्ट हाउस, थमेल का मिला. इसे भी पक्का कर दिया. थमेल काठमांडू के बीचों-बीच में स्थित एकमात्र देर रात तक खुला रहने वाला क्षेत्र है.
ये जानकारी थी कि वहाँ भारतीय रूपया भी चलता है. इसलिए विदेशी मुद्रा तो लेनी ही नहीं थी. हां, ये नई जानकारी आई कि नकली होने की आशंका में 500 और 2000 के नोट वो लोग स्वीकार नहीं करते हैं. इसमे कोई समस्या नहीं थी अतः 100 – 100 की गड्डियाँ रख ली.
नेपाल में किसी भी प्रकार की खाने-पीने की समस्या नहीं है. जैसा भारत के शहरों में मिलता है वैसा ही वहाँ भी मिलता है. होटल के मेनू भी भारत में स्थित होटलों के व्यंजनों जैसे ही होते हैं. फिर भी थोड़ा बहुत सौंफ – सुपारी और आँवला जैसी वस्तुएँ रख ही ली. बहुत ज्यादा ठण्ड ना होने के कारण कम कपड़े ही रखे. सूटकेस भी खाली ही रहा. इसके अलावा पासपोर्ट, टिकिट, होटल के वाउचर, भारतीय और विदेशी मुद्रा, डेबिट-क्रेडिट कार्ड, मोबाइल फ़ोन, चार्जर, हैंड्स फ्री और पॉवर बैंक, जरुरी दवाईयां इत्यादि जरुरी सामान भी रख लिया.
आखिरकार वो दिन भी आ ही गया. जल्दी सुबह ही एयर इंडिया की इंदौर से दिल्ली और उसके आगे दिल्ली से काठमांडू की हवाई यात्रा थी. उम्मीदों के अनुसार – जुना पुराना हवाई जहाज और वैसी ही एयर होस्टेस. किन्तु उडान समय पर थी. सारा सामान इंदौर में देकर काठमांडू में लेने के लिए इंदौर से ही थ्रू कनेक्शन ले लिया था. दिल्ली से काठमांडू का विमान भी छोटा था और यात्रा समय भी कम ही था. दो यात्राओं के बीच ज्यादा ले-ओवर नहीं था इसके कारण काठमांडू सुविधाजनक समय पर पहुँच गए. उतरते समय काठमांडू विमानतल पर टाटा की कम से कम 20 साल जुनी – पुरानी बस और उतना ही पुराना एयर इंडिया का स्टाफ टर्मिनल पर छोड़ने आया. दुनियाँ भर में घूम चुका हूँ पर शायद पहली बार देखा कि आने के समय विमानतल पर यात्रियों और उनके सामान की सुरक्षा जाँच हुई, कमाल है. बाद में इसी काठमांडू विमानतल पर कई सुरक्षा खामियां देखी. जबकि एयर इंडिया से जाने वाले यात्रियों की सुरक्षा जांच अलग से इसके सुरक्षा कर्मियों द्वारा की जाती है.
25 अप्रैल 2015 को काठमांडू में बहुत भारी भूकंप आया था. बहुत ज्यादा जान और माल का नुकसान हुआ और उसके बाद ये देश टूट सा गया था. इसको पुनः बनाने में भारत के अलावा बहुत से देश मदद कर रहे हैं. विमानतल से बाहर निकलते ही सब कुछ पुराना – पुराना सा दिखता है. उड़ती हुई धूल, पुराने वाहन, टूटी सड़कें, रेंगता हुआ ट्रैफिक, जर्जर मकान, रंगाई – पुताई मांग रहे मकान और सामान. हालांकि कई जगहों पर काम चल रहा है. सारी दुनियाँ के टैक्सी वाले एक ही बिरादरी के होते हैं. ग्राहक यानि यात्री को मूर्ख बनाकर अधिकतम पैसा हासिल करने का ही उद्देश्य होता हो. काठमांडू में भी ऐसा ही है. अधिकतम लोग भारतीय रुपया ही चाहते हैं. बैंक की विनिमय दर 1.5 के बावजूद स्थानीय लोग 1.6 का भाव देते हैं. हमने तो प्रीपेड टैक्सी ही ली और ये नहीं देखा कि रूपये ज्यादा लगे या कम लगे.
थमेल क्षेत्र काठमांडू का सबसे महत्वपूर्ण क्षेत्र है. हमारी होटल काठमांडू गेस्ट हाउस थमेल के बिलकुल मध्य में स्थित है. खुबसूरत है. कम जगह में काफी कुछ किया हुआ है. बड़े बड़े वी आई पी अक्सर यहीं रुकते हैं. यहाँ के कर्मचारियों का व्यवहार भी दोस्ताना है. जैसा कि मैंने ऊपर बताया है, भारत और नेपाल के खान-पान में कोई फर्क नहीं है, इस होटल में भी वही सब मिलता है जो अन्य होटलों में मिलता है. होटल में ही बहुत सी दुकाने अलग – अलग सामान की लगी हुई थी. पर बाद में समझ आया कि यहाँ उपलब्ध सामान के भावों में और वैसा का वैसा सामान जो बाहर कि दुकानों पर उपलब्ध है उनके भावों में बहुत ज्यादा फर्क है. होटल वाले महँगा सामान बेचते हैं. होटल से बाहर निकलते ही चारो तरफ रौनक देखने को मिलती है.
काठमांडू का एक महत्वपूर्ण दर्शनीय स्थल दरबार हाल या दरबार चौराहा है. यहाँ पर घूमने पर उज्जैन या बनारस की गलियाँ याद आ जाती है. यहाँ पर वो सब पुरानी इमारतें थी जिनसे कि पुराने समय में नेपाल का शासन होता था. भूकंप के कारण अधिकतम पुरानी इमारतें ख़त्म हो चुकी हैं. उनके ध्वस्त अवशेष देखकर लगता है कि ये साम्राज्य कभी बहुत बुलंदियों पर रहा होगा. वर्तमान में चीन और जापान के सहयोग से टूटी हुई इमारतें पुनः बनाई जा रही है. वातावरण में चारों तरफ बहुत धूल है. इस क्षेत्र में घुमने के लिए गाइड जरुर लेना चाहिए. वहाँ पर खुकरी, रुद्राक्ष, पश्मीना के कपड़े और थंका कारीगरी (Painting on Canvas) से बने हुए चित्रों की बहुत सी दुकाने हैं. सभी सामानों के भावों में जबरदस्त भाव-ताव होता है. किसी भी भाव पर सामान लो, थोड़ी दूर जाकर तलाश करो तो पता चलता है कि ठगा गए.
काठमांडू में दरबार हाल के अलावा अन्य सड़कों पर घुमने में मज़ा नहीं है. स्थानीय नेपाली भले ही ईमानदार हो, पर शिक्षा का नितांत अभाव है. ऐसा लगता है कि यू पी या बिहार में घूम रहें हैं. सड़कों पर बहुत ज्यादा भीड़, खुली नालियाँ और कचरे के ढेर. वातावरण में दुर्गन्ध व्याप्त रहती है. भारत की गाडियों को सात दिन का ट्रांजिट परमिट दिया जाता है. जिधर भी नज़र उठाओ, भारतीय कंपनियों का ही सामान दिखता है.
अब खाने-पीने की बात करें. काठमांडू में ढेर सारे रेस्तरां हैं. इनमे भी अधिकतम थाई और चीनी व्यंजन परोसते हैं. इसके अलावा मेडिटेरेनियन और इतालवी भोजन के रेस्तरां भी है. साउथ इंडियन कहीं भी उपलब्ध नहीं है. पंजाबी व्यंजन कम ही दिखे. रोटी से ज्यादा चाँवल प्रयोग में लिया जाता है. नेपाली दाल-भात यहाँ का सबसे ज्यादा पसंद किया जाने वाला व्यंजन है.
नेपाल का एक मुख्य आकर्षण माउंटेन फ्लाइट होता है. इसमें यात्री को हिमालय की एवरेस्ट चोटी के ऊपर ले जाते हैं. स्थानीय भाषा में इसे सागरमाथा कहते हैं. इसके लिए जल्दी सुबह 4 बजे उठकर 5 बजे टैक्सी पकड़कर लगभग 6 बजे की फ्लाइट होती है. प्रायः सभी को विंडो सीट दी जाती है.
काठमांडू के हवाई अड्डे पर किसी भी प्रकार की सुरक्षा व्यस्था नहीं है. बहुत ही लुंज-पुंज तरीके से सुरक्षा व्यवस्था की जाती है. दुनिया के सबसे घटिया हवाई अड्डों में से एक काठमांडू का हवाई अड्डा भयानक रूप से गंदे वाशरूम वाला हैं. चारों तरफ गंदगी फैली रहती है. कुछ ही दुकाने हैं और उन पर खतरनाक लूट-पट्टी है. पहले दिन माउंटेन फ्लाइट के लिए गए तो दो घंटे पश्चात बताया कि मौसम खराब होने के कारण फ्लाइट निरस्त कर दी गई है. मन बहुत कसेला हो गया. मौज-मजा छूटा सो छूटा, साथ ही एयर पोर्ट आने-जाने के दो बार के रूपये व्यर्थ ही लग गए. हमने अगले दिन का टिकिट ले लिया. लौटकर होटल में आकर डटकर नाश्ता किया और कमरे में आकर जो सोए तो सीधे शाम को चार बजे ही उठे. सभी ने पास के ही एक चाइनिस रेस्तरां में खाना खाया. उसके पश्चात फुटबाल का एक अंतर्राष्ट्रीय मैच देखा. शाम के पश्चात थोड़ा बहुत घूमना-फिरना किया. कुछ खरीददारी भी की.
अगले दिन पुनः होटल से सुबह जल्दी पांच बजे निकलकर माउंटेन फ्लाइट के लिए एअरपोर्ट गए. होटल वाले ने साथ के लिए ठंडा नाश्ता दे दिया. आज भी मौसम खराब होने के कारण फ्लाइट निरस्त कर दी गई. एयर पोर्ट से बाहर निकलते समय फ्लाइट निरस्ती का ठप्पा लगवाया. ट्रेवल एजेंट से उसके पूरे पैसे वापस मिल गए. हमारी गाड़ी के ड्राईवर का नाम राजू था. उससे पहले ही बात हो गई थी कि यदि फ्लाइट निरस्त होती है तो वो हमें चंद्रगिरी पर्वत स्थित भालेश्वर महादेव के दर्शन कराएगा. उसी कार्यक्रम के अनुसार हम भालेश्वर महादेव मंदिर पहुंचे. ये एक शक्तिपीठ है. यहाँ पर सती यानी पार्वतीजी का सिर गिरा था. केबल कार के द्वारा ऊपर जाना होता है. यह एक बहुत ऊँचाई पर स्थित रमणीय स्थान है. यहाँ पर इन्होने टेलिस्कोप लगा रखे हैं. उनमे सिक्का डालने पर हिमालय की कई चोटियों के दर्शन हो जाते हैं, विशेषकर एवरेस्ट और कंचनजंगा. इतने सब के पश्चात वापस लौटे – वही टूटी-फूटी सड़कें और धूल भरे रास्ते. एक पर्यटक जहाँ घूमने जाता है वहाँ इन कमियों को स्वीकार नहीं करता है. अमेरिका, यूरोप और अन्य विकसित देशों में इन विषयों का विशेष ध्यान रखा जाता है. चंद्रगिरी पर्वत के बाद स्वयंभू मंदिर या मंकी टेम्पल पूरी 365 सीढियाँ चढ़कर गए. कुछ विशेष नहीं था. नहीं भी आते तो चल जाता. उसके बाद नेपाल के प्रतिक पशुपति नाथ मंदिर गए. वहां पहुँचते – पहुँचते दोपहर के दो बज गए थे और उस समय भगवान् पशुपति नाथ के आराम करने का समय था. वहीँ पर थोड़ा घूमे. ये मंदिर बागमती नदी के किनारे पर स्थित है. ये नदी मंदिर के ठीक पीछे सटकर लम्बी रेखा के रूप में बहती है. किसी समय की जीवनदायिनी बागमती नदी अब नाले में परिवर्तित हो चुकी है. इसके दोनों तरफ के घाटों के किनारे पर चबूतरे बनाकर खुले में शमशान घाट बना दिया गया है. दिन भर और एक साथ कई चिताएं जलती हुई नज़र आती है.
उसके बाद सीधे होटल आए. तैयार होकर पास ही के एक थीम बेस रेस्तरां में खाना खाया और बास्किन राबिन्स के यहाँ से आइसक्रीम खरीदी. सुबह जल्दी निकलना था. इसके लिए रात को ही सभी सामान जमाकर सूटकेस की पैकिंग करनी थी. जल्दी – जल्दी सारे कार्य निपटा कर सो गए. उस दिन 24 दिसम्बर होकर क्रिसमस इव थी. होटल में भी एक लाइव शो था. काफी देर तक हलचल रही. कर्कश संगीत बजता रहा.
अगले दिन सुबह जल्दी उठकर दिल्ली जाने के लिए एयरपोर्ट पहुँचे. फ्लाइट जाने में कुछ देर थी। बोर्डिंग पास लेकर अंदर आए, पता चला कि सुबह के नाश्ते के लिए अन्दर की तरफ कोई अच्छी सी दुकान ही नहीं है. ड्यूटी फ्री की एक भी दुकान नही है। वही लचर- फचर सिक्योरिटी चेक. एयर इंडिया वाले अपना खुद का अलग से सिक्योरिटी चेक करते हैं। हवाई जहाज के बाहर छोटे छोटे 3 रेल के डब्बों जैसी ट्राली में यात्री और उसका सामान दुबारा चेक करते हैं। समय पर उडकर समय पर दिल्ली पहुंचे. वहां कुछ देर इंतज़ार करने के बात अगली फ्लाइट इंदौर की पकड़ी.
हर जगह की अपनी संस्कृति होती है जो कि वर्षों के जीवन के बाद विकसित होती है. इसमें यदि नागरिकों को शिक्षित करके सामान्य जीवन का स्तर उठा लिया जाए तो बहुत परिवर्तन दिखने लगता है शुरुआत में सिर्फ एक सोच की जरुरत होती है. उसके बाद साधन अपने आप जुटते चले जाते हैं. बगैर किसी विघ्न के यात्रा संपन्न हुई, इसी का संतोष है.