वो तीन तिलंगे जिन्हें मोहल्ला चाँदमारों की टोली कहता था, अलग-अलग पारिवारिक पृष्ठभूमि से थे। देबू के पापा की फैक्टरी थी। सन्नी के पापा बड़े व्यापारी और शेरा के पापा बड़े सरकारी ओहदे पर थे। एक ही स्कूल की एक ही कक्षा में तीनों पढ़ते थे। पढ़ाई-लिखाई में शेरा सबसे अव्वल, सन्नी औसत और देबू सबसे दूर था। तीनों की खूब घुटती थी। रोज शाम को स्कूल छूटने से लेकर देर रात को सोने तक तीनों किसी न किसी उधेड़बुन में लगे रहते थे। आने वाले त्योहारों की महीने भर पहले से तैयारी शुरू हो जाती थी। घुन्ताड़े का काम देबू, जमावट का काम सन्नी और दिमाग का काम शेरा के जिम्मे रहता था।
कंचे, अंटी, ढइय्या, पाकिट, पतंग, सितोलिया, लंगड़ी, छिप्पन-छाई, गधामार, नदी-पहाड़, पकड़म-बाटी, कबड्डी, चिय्यें, साँप-सीढी, लूडो, व्यापार, ताश के पत्ते सब कुछ खेलते और खूब खेलते। टायर चलाना, झाड़ पर चढ़कर जंगली चारोली तोड़ना, तालाब के पानी पर आड़ा पत्थर फेंककर उसको टप्पे खिलाना, रोज़ के मिलने वाले पईसे से मोटे का सैंडविच, डोकरी अम्मा के उबले आलू और चने, सिन्धी ठेले वाले के मसालेदार कबीट और बोर खाना, ये सब उनकी दिनचर्या में शामिल था। अनंत चतुर्दशी पर घर में ही झाँकियाँ सजाना, जन्माष्टमी के समय आँख पर पट्टी बाँधकर आड़ी-टेढ़ी लकीरों के बीच में से निकलते हुए मटकी फोड़ने का प्रयास करना और ईद के समय मीठी सिवईयां बनवाना यानी हर त्योहार के मज़े लेना, ये तो उनका शगल था।
दिसंबर की कड़कड़ाती ठण्ड, क्रिसमस की छुट्टियाँ और आने वाली संक्रांति के लिए पतंग का मान्जा सूतना, ये पूरे वर्ष की सबसे महत्वपूर्ण गतिविधि होती थी। देबू उसके पापा को बोलकर सूरत से मजबूत गट्टा (धागन) बुलवाता। सन्नी ट्यूब लाइट पीसकर कांच का चूरा बनाता। उसके घर पर ही चावल के मांड में आरारोट, सरेस, खाने का गोंद और रंग डालकर घोल को खूब उबालकर कांच का बुरा मिलाना, साइकल के पिछले पहिए पर लटाई सटाकर धागन खींचना और मान्जा तैयार करना, ये काम तीनों मिलकर ही करते थे। कोई हिसाब-किताब नहीं। सबका सब कुछ। देबू का मकान सबसे बड़ा और मोहल्ले के बीचों-बीच में था, जिसे सभी लोग लाल हवेली के नाम से जानते थे। बहुत बड़ी गच्ची थी और पतंग उड़ाने का वास्तविक मज़ा वहीँ पर आता था। अड़ोस-पड़ोस में किसी ने ज़रा सी भी पतंग ऊँची की तो पेंच लड़ जाते थे। खींच के हो या ढील के, लाल हवेली के आगे कोई नहीं टिकता था।
समय आगे बढ़ता गया और खेल भी बदल गए। क्रिकेट, बैडमिन्टन, टेबल टेनिस, फुटबाल, वालीबाल ये भी खूब खेलते। तीनों का साथ बरक़रार था। हाँ, पढ़ाई का महत्व बढ़ता जा रहा था। पहले घर वाले पढ़ने के लिए ज़ोर देते थे किन्तु अब उनको अपनी जवाबदारी भी समझ में आने लगी थी। तीनों में शेरा सबसे ज़्यादा पढ़ाकू था। उसकी बड़ा अफसर बनने की इच्छा थी। कभी-कभी देबू और सन्नी उसको ‘ओए कलेक्टर’ बोलकर चिढ़ाते थे।
समय गुज़रता गया। आगे की पढ़ाई के लिए देबू लन्दन चला गया। सन्नी ने शहर के ही अच्छे कॉलेज से कंप्यूटर साइंस में बी.ई. करने के लिए एडमिशन ले लिया। शेरा को आई.आई.टी. मुम्बई में प्रवेश मिल गया। मोहल्ले की रौनक चली गई। तीनों का मिलना भी कम हो गया था पर एक-दूसरे के संपर्क में थे। देबू और शेरा जब भी शहर में आते, सन्नी के साथ ही शाम गुजरती थी। पुनः समय बदला, सभी की पढ़ाई पूरी हो गई। देबू और उसके पापा बढ़ते हुए व्यापार को देखते हुए लन्दन में बस गए। लाल हवेली सुनसान हो गई। सन्नी ने उसके पापा का हाथ बंटाते हुए पूरे भारत में व्यापार फैला दिया। शेरा ने तो ग़ज़ब किया। मज़ाक को वास्तविकता में बदल दिया। वो कलेक्टर बन गया। जी हाँ, वो कलेक्टर बन गया। यू.पी.एस.सी. में उसकी 50 के अन्दर ऑल इंडिया रैंकिंग रही। उसका भी शहर छूट गया। सभी की शादियाँ हो गई और बाल-बच्चे भी हो गए। तीनों संपर्क में थे परन्तु मिलना-जुलना कम ही होता था।
मोहल्ले वालों ने एक दिन देखा कि लाल हवेली की साफ-सफाई और रंग-रोगन हो रहा है। पड़ोसियों ने हवेली के चौकीदार सौदान काका से इसका कारण पूछा तो वो बोले – ‘मोहे।। का पतो। मनीज्जर साब भेजे हैं इनको।’ कड़ाकेदार ठण्ड वाले जनवरी के महीने का पहला हफ्ता था। लाल हवेली पर एक नम्बर लिखी हुई सफ़ेद एस.यू.वी. आकर रुकी। देबू, उसके पापा और उनका पूरा परिवार आया था। मोहल्ले के पुराने परिचित भी इकट्ठे हो गए। देबू तो उतरते ही मोहल्ले की गलियों में बहुत कुछ खोजने चला गया। हर एक घर, गली और चौराहा मानो उससे बातें कर रहे थे। वो तो खो सा गया था। वो कभी ओटले पर, कभी बगीचे की डोली पर, तो कभी साईं के टूटे स्टूल पर बैठा। उसने एक पत्थर उठाया और दूर से बिजली के खम्बे को निशाना लगाकर ताड़ दिया। निशाना लगते ही जोर से आवाज आई – टन्न।। और देबू को जैसे खोया धन मिल गया। वही पत्थर उठाकर उसने पास से गुजरते हुए एक काले कुत्ते को दे मारा। कुत्ता चिल्लाता हुआ भागा और देबू का बचपन लौट आया।
संक्रांति से तीन दिन पहले ही शेरा भी आ गया। सन्नी तो शहर में ही था। तीन तिलंगे फिर भेले हो गए। मान्जा सूतना था। सारा सामान पहले ही आ गया था। वो फिरंगी घोल बना रहा था। देसी भैया साइकल का पेडल मार रहे थे और कलेक्टर धागन सूत रहा था। संक्रांति की सुबह तीनों जल्दी ही गच्ची पर पहुँच गए और का।।।टा है की आवाजें लगने लगी। समय के साथ पतंग उड़ाने वाले भी बढ़ गए। आस-पास के कुछ मकान भी ऊँचे हो गए थे। पहले जैसा एकतरफ़ा मौका नहीं था। तीनों पतंग काट भी रहे थे और उनकी पतंग कट भी रही थी। का।।।टा है की आवाज के साथ ही ज़ोर-ज़ोर से ढोल बजने लगता। पतंग लूटने का मज़ा नहीं रहा किन्तु उड़ती हुई पतंग से कटी हुई पतंग हिलकाने का जोश कुछ ज़्यादा था। गच्ची पर ही सारी खाने-पीने की व्यवस्था थी। देर शाम तक जोश बरक़रार रहा। मोहल्ले वालों ने चाँदमारों की टोली को पुनर्जीवित होते देखा।
तीनों ने सच्चे मन से स्वीकारा कि तीनों ने ही एक दूसरे को बहुत मिस किया। ये मौज-मस्ती पहले भी करनी थी। खैर, देर आए दुरुस्त आए। दूसरे दिन, अगले वर्ष पुनः मिलने के वादे के साथ तीनों ने भारी मन से विदा ली। इस दृश्य को देखकर सभी चौंक गए। दुनिया का बड़े से बड़ा सुख हो या अधिकार, यारी दोस्ती के आगे सब कुछ फीका है।