Doctor Ajay Goyal

छलिया

महाभारत के अंतिम युद्ध का आज छटवां दिन था. चारों और मार-काट मची थी. पांडवों की सेना ने कोरवों की सेना को भयानक क्षति पहुँचाई थी. भयानक रूप से आगबबुला होते हुए दुर्योधन कोरवों के सेनापति भीष्म पितामह के शिविर आ पहुंचा. उसने क्रोधित होते हुए पूछा -पितामह स्पष्ट कीजिये कि आप किस और से लड़ाई लड़ रहें हैं? कोरवों के मुकाबले पांडवों को बहुत कम क्षति पहुँची है. मेरे बहुत से भाई मारे जा चुके हैं और आज भी सभी पांचो पांडव जिन्दा हैं. आप उन्हें मारना चाहते हैं या नहीं? भीष्म पितामह ने आहत होकर कहा – दुर्योधन…. ऐसा नहीं है. पर ध्यान रखो कि वो धर्म की लड़ाई लड़ रहें हैं और में अधर्म का साथ दे रहा हूँ. फिर भी ये पक्का है कि कल शाम का सूरज ये पांचो पांडव नहीं देखेंगे. आज रात की पूजा में मै ५ बाण अभिमंत्रित करके सभी पाँचों पांडवों का संहार कर दूंगा. दुर्योधन ख़ुशी के अतिरेक में अपने शिविर लौट आया.

गुप्तचरों से पांडवों को इस योजना की जानकारी मिलने पर उनके शिविर में घबराहट फेल गयी. सभासदों ने एकमत से भीष्म पितामह की रात्रिकालीन पूजा में ही विघ्न डालने का सुझाव दिया जिसे युधिष्टिर ने अधर्म सम्मत बताते हुए अस्वीकार कर दिया. घोर निराशा फेल गयी. कल क्या होगा?

रात्रि के अंतिम प्रहर के खत्म होने के कुछ समय पहले एक पुरुष और एक स्त्री पांडवों के शिविर से छदम वेश में निकले. स्त्री की पादुकाएँ आवाज कर रही थी तो पुरुष ने पादुकाएँ हाथ में लेकर अपने उत्तरीय में छिपा लिया. वे दबे पाव कोरवों के शिविर क्षेत्र में दाखिल होकर भीष्म पितामह के शिविर पर पहुंचे. पुरुष ने स्त्री को कुछ समझा कर पितामह के शिविर के अन्दर भेज दिया. पितामह का पूजन चल रहा था. स्त्री ने साड़ी के पल्लू का घूँघट बनाकर चेहरा ढँक लिया और धीरे से पितामह के पीछे जाकर बैठ गयी.

पूजन समाप्त करके जैसे ही पितामह खड़े हुए, वह स्त्री पितामह के चरणों में झुक गई और आशीर्वाद माँगा.

पितामह बोले –सोभाग्यावती भवः.

स्त्री ने तुरंत अपना घूँघट हटाया और कहा –तात, अपने आशीर्वचन की रक्षा कीजियेगा.

पितामह ने चोंकते हुए स्त्री को देखा और कहा –अरे… द्रौपदी तुम !!!! तुम…. सैरन्ध्री !!!!

पितामह ने अपना सर पकड़ लिया और बोले – द्रोपदी तुमने मेरी पूजा का उद्देश्य ही बदल दिया. पर इतनी रात गए अकेली आई हो?

‘नहीं तात, मेरे साथ भैया भी हैं’ -द्रौपदी बोली

‘कौन धृष्टधुम्न?’ – तात ने पूछा

द्रौपदी बोली – नहीं, द्वारकाधीश श्री कृष्ण मेरे साथ आए हैं.

अच्छा, तो ये ही है वो छलिया. इस योजना का सूत्रधार. पितामह तुरंत बाहर आए और बोले -हे योगेश्वर आप बाहर क्यों खड़े हैं? आप भी अन्दर आ जाते. पितामह ने कृष्ण को गले लगा लिया.

उन्होंने उसी समय पाँचों अभिमंत्रित बाणों को तोड़ दिया और द्रौपदी को निश्चिन्त होकर जाने का आदेश दिया.

द्रौपदी ने साड़ी के घूँघट में चेहरा छिपाकर पितामह के शिविर में इस घटना को जो मोड़ दिया वो अविस्मर्णीय है. ये है सैरन्ध्री का आत्मविश्वास. सैरन्ध्री की साड़ियों में द्रौपदी का वास है. इनको पहनने से धर्मसम्मत कार्य निर्विघ्न पूर्ण होते है. स्त्री का सुहाग हमेशा रक्षित रहता है.

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