Doctor Ajay Goyal

रक्त बंधन

मेयो कॉलेज, अजमेर के बहुत मेघावी छात्रों में भुवन का नाम शुमार हुआ था। इतनी कम उम्र में निशानेबाजी में उसने भारत का प्रतिनिधित्व करते हुए एशियन गेम्स में हिस्सा लिया था। इसी के साथ बारहवीं की परीक्षा में आज तक के सर्वाधिक नंबर प्राप्त करने का भी उसने रिकॉर्ड तोड़ा था। भुवन का आर्मी में बड़ा अफसर बनकर देशसेवा करने का लक्ष्य था। इसी लक्ष्य को ध्यान में रखकर उसने एन। डी। ए। में प्रवेश लिया। वहाँ पर भी अपनी प्रतिभा का लोहा मनवाते हुए सफलता के परचम गाड़ दिए। भुवन का आर्मी में लेफ्टिनेंट के पद पर चयन हो गया और उसकी इच्छा के अनुरूप, उसे पहली पोस्टिंग कश्मीर के बारामुला सेक्टर में ही मिल गई।

ज़ीनत अपने पापा की लाड़ली, चहेती और इकलौती बेटी थी। कोई भाई नहीं था। वो एक खुशमिजाज लड़की थी। उसको घूमने फिरने का बेहद शौक था। थोड़े दिन की छुट्टियाँ मिली नहीं कि पापा – मम्मी के साथ घूमने के लिए निकल जाती। पूरे भारत के साथ वो विदेश भी घूम चुकी थी। ये तो एक ऐसा शौक है जिसमें की हमेशा ही बाहर जाने की लालसा बनी रहती है। उसकी कॉलेज की पढ़ाई भी आखिरी मुकाम पर थी। आखिरी सेमिस्टर ख़त्म होने के तुरंत बाद उसका अपनी दो सहेलियों और यूथ होस्टल के अन्य साथियों के साथ अमरनाथ यात्रा पर जाने का कार्यक्रम बना हुआ था।

उनका ग्रुप ट्रेन से जम्मू और उधमपुर पहुँचा। वहां से बस द्वारा श्रीनगर पहुँचे। रात्रि विश्राम वहीँ पर था। कश्मीर के बारे में कहते हैं कि स्वर्ग कहीं है तो बस यहीं है, यहीं है और यहीं है। बादलों और आकाश को चीरते हुए ऊँचे वृक्षों से आच्छादित हरी – सफ़ेद पहाड़ियाँ और वे भी कहीं – कहीं बर्फ से ढकी हुई। दूर – दूर तक नज़र डालो तो अलग – अलग रंगों के दिखने वाले ये पहाड़ मन को सुखद अहसास देते हैं। ये अनुभव वहाँ पर जाने और प्रकृति से साक्षात्कार करने पर ही महसूस होता है। ईश्वर ने कश्मीर में जो सौंदर्य उड़ेला है, वो शायद ही दुनिया के किसी अन्य स्थान पर हो। मन में घुमड़ – घुमड़कर कर एक ही विचार आता है कि ईश्वर के इतने नजदीक रहने वाला कोई बाशिंदा आतंकवादी गतिविधियों में कैसे लिप्त हो सकता है?

अगले दिन सावन की पूर्णमासी यानी रक्षाबंधन का त्यौहार था। ज़ीनत को शुरू से ही एक भाई की कमी महसूस होती थी। खासकर रक्षाबंधन के दिन तो वो कुछ ज्यादा ही मायूस रहती थी। सुबह स्नान – ध्यान के पश्चात् पूरा समूह बालताल के लिए बस से निकला। बेस कैंप पर कुछ समय विश्राम करने और लंगर में प्रसाद लेने के पश्चात् अमरनाथ यात्रा के अगले पड़ाव के लिए पैदल चल पड़े। एक दूसरे को छेड़ते और चुहलबाजी करते हुए आधा रास्ता कब निकल गया पता ही नहीं चला। उनके ठीक आगे चल रहे समूह में अचानक कोलाहल मचा। ध्यान दिया तो देखा कि लगभग 8 – 10 बड़ी – बड़ी दाढ़ी बाले व्यक्ति हवा में बंदूकें लहराते हुए उनकी और ही दौड़ते चले आ रहे थे। कोई चिल्लाया – दौड़ो, आतंकवादी आ गए है। हमला करने वाले है। आतंकवादियों ने इधर उधर भागते हुए यात्रियों पर अंधाधुन्द गोलियाँ चलाना शुरू कर दी। आपाधापी मच गई और सभी लोग चट्टानों के पीछे छुपकर अपनी – अपनी जान बचाने को भागे। यात्रियों की सुरक्षा में लगे भारतीय सेना के जवानों ने थोड़ी देर में ही मोर्चा संभाल लिया। कुछ ही देर में सेना की एक टुकड़ी लेफ्टिनेंट भुवन के नेतृत्व में आ पहुंची।

आतंकवादी भी भारी तैयारी के साथ आए थे। दोनों और से गोलियाँ चलने लगी। सेना की दूसरी टुकड़ी ने आतंकवादियों को पीछे की तरफ से घेर लिया। भयानक  संघर्ष और लड़ाई शुरू हो गई। अमरनाथ के यात्री बड़ी – बड़ी चट्टानों के पीछे छिपे हुए थे। भारतीय सैनिकों ने भी उनके साथ ही मोर्चा संभाला हुआ था। किसी के मुँह से आवाज भी नहीं निकल रही थी।

आतंकवादियों के हमला करते ही जब सभी लोग जान बचाने के लिए भागे तो ज़ीनत का पैर एक पत्थर पर पड़ा और वो लड़खड़ाकर एक छोटे गड्ढे में नीम बेहोशी की हालत में गिर गई। चूँकि सभी लोग अपनी – अपनी जान बचाने में लगे थे, किसी को भी उसका ध्यान नहीं आया। हालात ऐसे बने की एक तरफ भारतीय सेना, दूसरी तरफ आतंकवादी और बीच में एक गड्ढे में गिरी हुई ज़ीनत। थोड़ी देर में जब ज़ीनत की नीम बेहोशी टूटी और उसने थोड़ा सा सिर उठाया तो एक गोली दनदनाती हुई उसके सिर के ऊपर से निकल गई। एक झटके से वो झुककर नीचे लेट गई। उसको समझ आ गया कि जरा सी भी गलती उसके सिर के परखच्चे उड़ा देगी। इसी बीच उनके समूह के एक सदस्य की उस पर नज़र पड़ गयी और वो जोर से चिल्लाया – ज़ीनत।।।। ज़ीनत वो रही, वो वहाँ फंसी पड़ी है। लेफ्टिनेंट भुवन ने भी ये आवाज सुनकर ध्यान से देखा कि कोई लड़की गोलियों की आवाजाही के बीच में फँसी हुई है। दोनों तरफ की गोलियां उसके सिर के ऊपर से ही निकल रही है।

गोलीबारी भयानक तेज़ हो चुकी थी। पीछे से सेना की एक और टुकड़ी आ गई। ये आत्मघाती आतंकवादी थे जो की तीन तरफ से घिरे चुके थे, पर आर-पार की लड़ाई के उद्देश्य से आए लगते थे। ज़ीनत की पोज़ीशन आतंकवादियों की हद में थी और उनके पीछे हटने की स्थिति में ही उस तक पहुँच पाना संभव था। क्षण – प्रतिक्षण ये लग रहा था कि ज़ीनत को कभी भी गोली लग सकती है। सेना के अन्य जवानों ने यात्रियों को पीछे हटाते हुए उन्हें सुरक्षित स्थान पर ले लिया। किसी के भी गले से आवाज नहीं निकल रही थी। सभी मन ही मन बम भोले करते हुए ईश्वर से ज़ीनत की जान बचाने की कामना कर रहे थे। शिवभक्त ज़ीनत को रूद्र पुराण कंठस्थ याद था। वो मन ही मन उसका जाप कर रही थी।

भुवन को सूझ नहीं पड़ रहा था कि ज़ीनत तक कैसे पहुँचकर उसे सुरक्षित लाया जाए। आतंकवादियों को भी ज़ीनत के फँसे होने की जानकारी हो गई थी। वो भी मोर्चा संभालते हुए अपनी जगह से थोड़ा थोड़ा आगे उसकी की तरफ बढ़ रहे थे। शायद उनका लक्ष्य ज़ीनत को बंधक बनाकर भारतीय सेना पर दबाव बनाते हुए सुरक्षित निकल भागने का था। आतंकवाद पर एक मोटी चोट पहुचाने  का मौका चूक सकता था। भुवन की ख्याति सेना में एक शार्प शूटर की थी। तभी उनके मन में बचपन से सुनते आ रहे महाभारत के अर्जुन की धनुर्विद्या, पांचाल में द्रौपदी के स्वयंवर, नीचे कढ़ाव में खौलता तेल, ऊपर घुमती हुई मछली और उसकी आँख की कहानी घूम गई। स्वयंवर में तो होने वाले पति – पत्नी का रिश्ता था पर यहाँ कश्मीर की धरती पर इन परिस्थितियों में कौनसा रिश्ता आकार लेने वाला था, पति – पत्नी का या भाई – बहन का?

(आगे क्या हुआ? क्या ज़ीनत की जान बच गई? उन आतंकवादियों का क्या हुआ? लेफ्टिनेंट भुवन को पत्नी मिली या बहन? ये सब जानने के लिए ‘सैरन्ध्रि’ का सितम्बर 2017 का अंक देखना ना भूलें।)

लेफ्टिनेंट भुवन ने अपनी सबसे बेहतरीन रायफल बुलवाई जिसे वो ‘शोले’ कहता था। इसके पहले तक तो जो भी निशाने लगाए, वो शूटिंग रेंज के अन्दर नकली पुतलों पर ही लगाए थे। पहली बार जीवन में वास्तविकता का सामना होने जा रहा था। निशाना दूर का था पर असंभव नहीं था। तभी भुवन ने देखा कि एक आतंकवादी खुले मैदान से होते हुए ज़ीनत के काफी नजदीक पहुँच रहा है। कुछ ही देर में वो उसको कब्जे में ले सकता है। आसपास में खड़े भुवन के सभी साथी साँस रोककर ये घटनाक्रम देख रहे थे। भुवन ने पोज़ीशन लेकर, ध्यान लगाते हुए उस आतंकवादी पर निशाना साधकर तड़ से गोली चला दी। असंभव – संभव हो गया। पहली ही गोली उस आतंकवादी के भेजे को फोड़ते हुए निकल गई। भुवन के साथी ख़ुशी के अतिरेक में चिल्ला उठे। उसने ने सबको शांत करते हुए संयम बरतने को कहा।

आतंकवादी अपने एक साथी को गवांकर थोड़ा सा पीछे हटे, पर मोर्चा नहीं छोड़ा। उनको अब अपनी जान बचाने और सुरक्षित निकलने के लिए कैसे भी करके ज़ीनत तक पहुँच कर उसको कब्जे में लेना था। उनको समझ में आ गया था कि भारतीय सेना को उनकी योजना की जानकारी मिल गई है। वो दो और तीन लोगों की टोलियों में बंट गए। कुछ देर के लिए लड़ाई का लक्ष्य ही बदल गया। आतंकवादी ज़ीनत को कब्जे में लेना चाहते थे, जबकि भारतीय सेना उसको सुरक्षित रहने देना चाहती थी। ज़ीनत का आतंकवादियों के कब्जे में रहना कई अनर्थकारी कूटनीतिक परिणामों को जन्म दे सकता था। तभी दो आतंकवादी मैदान से होते हुए उस गड्ढे की तरफ बढ़े जिधर ज़ीनत गिरी हुई थी। उनको बाकी आतंकवादियों ने कवर देना शुरू किया। वो सभी लोग धीरे – धीरे आगे बढ़ रहे थे। एक बार पुनः ‘शोले’ से शोले बरसाने की जरुरत थी। भुवन ने वही पोज़ीशन और वही ध्यान मुद्रा में ईश्वर का नाम लेकर निशाना साधते हुए ट्रिगर दबाकर गोली चला दी। एक और आतंकवादी का भेजा उड़ गया। शीघ्र ही भुवन ने अगले आतंकवादी का निशाना लेकर एक बार पुनः गोली चलाई और वो भी ढेर हो गया। बाकी बचे हुए आतंकवादी विचलित होने लगे थे। ज़ीनत तक पहुँचने के लिए उन्हें कुछ दुरी खुले में चलना था। इस खुली दुरी में चलकर ही उनके तीन साथी जान गवां चुके थे। ये उनके लिए भी सोच से बाहर था कि ना दिखने वाली इतनी दुरी से भी कोई व्यक्ति इतना सटीक निशाना लगा सकता था।

आतंकवादियों और उनके पनाह्गारों के बीच की बातचीत भारतीय सेना के पकड़ में आ गई। आतंकवादियों ने निराशा झलकाते हुए अपने आकाओं को घटनाक्रम सुनाया। उधर से स्पष्ट निर्देश दिए गए कि उस लड़की को जिन्दा ही पकड़ना है अन्यथा भारतीय सेना सभी को खत्म कर देगी। दुश्मन की इस योजना की जानकारी पाकर भुवन के भी रोंगटे खड़े हो गए। उस पर बस अब ज़ीनत को सुरक्षित निकालने का जुनून सवार हो गया। समय निकलता जा रहा था और तीन आतंकवादियों को ख़त्म कर देने की जानकारी उच्च स्तर के अधिकारियों को पहुँच चुकी थी। नई दिल्ली में सेना के कार्यालय स्थित ‘युद्ध कक्ष’ (War Room) में प्रधानमंत्री, रक्षामंत्री, तीनों सेनाद्यक्ष, रक्षा सचिव, रक्षा सलाहकार इत्यादि सभी हाज़िर थे। अन्तरिक्ष में स्थित भारतीय सेटेलाइट के माध्यम से संपूर्ण दृश्य सामने दिख रहे थे। उत्तेजनापूर्ण सन्नाटा पसरा हुआ था। ज़ीनत का आतंकवादियों के कब्जे में जाना लम्बे कूटनीतिक दुष्परिणाम दे सकता था।

अनुमानों के अनुसार अब वहां पर पाँच या छह आतंकवादियों के होने की संभावना थी। उनकी नई योजना के अनुसार इस बार सिर्फ एक आतंकवादी वृक्षों से समूह के पीछे से निकल कर ज़ीनत की तरफ दौड़ पड़ा। बाकी आतंकवादी उसे कवर दे रहे थे। भुवन ‘शोले’ को हाथ में लेकर निशाना लगाने को तैयार बैठा था। वो आतंकवादी चट्टानों के पीछे से निकलकर और सीधा ना आते हुए सर्पाकार दौड़ने लगा। भुवन के लिए ये ही तो परीक्षा की घड़ी थी। उसकी रायफल से गोली चली और आतंकवादी के सीने में उतर गई। चारों तरफ एक बार पुनः सन्नाटा पसर गया। सेना की अन्य टुकड़ियाँ और उनके नायक सामने मैदान में होते हुए इस घटनाक्रम, स्वयं के लिए मोबाइल सेट पर आते हुए आदेश, भुवन को दिए जाने वाले निर्देश, कान और आँख खोलकर सुन – देख रहे थे। उनकी टुकड़ियाँ भी गोलीबारी करते हुए आतंकवादियों पर अपना घेरा मजबूत करते हुए शिकंजा कसती जा रही थी।

अचानक किसी वरिष्ठ आफिसर की मोबाइल सेट पर आवाज आई – लेफ्टिनेंट भुवन, ज़ीनत को बचाने का तुम्हारा लक्ष्य है फिर भी तुम्हें आदेश दिया जाता है कि विपरीत परिस्थितियों में प्लान बी के अंतर्गत ज़ीनत को गोली मार दी जाए। भुवन के लिए ये चौंकाने वाला आदेश था। चौथे आतंकवादी के मारे जाने के बाद अब पाँच आतंकवादी और बचे थे। वो लोग दो, दो और एक के समूह में बंट गए। वो भी जानते थे कि ज़ीनत के सुरक्षित रहने में ही उनकी भलाई है। अचानक तीन तरफ से वृक्षों के झुरमुट से निकलकर, एक – एक आतंकवादी गोलियां चलाते हुए ज़ीनत की तरफ भागे। भुवन ऐसे ही किसी आक्रमण का मन में सोचकर बैठा था। पर्याप्त समय था। ज़ीनत के सबसे नजदीक पहुँचे आतंकवादी को उसने सबसे पहले उड़ा दिया। तुरंत ही दूसरे पर निशाना लगाया किन्तु वो आतंकवादी जमीन पर बैठ गया और बैठे – बैठे ही आगे बढ़ने लगा। भुवन का निशाना चुक गया। वो दोनों आतंकवादी ज़ीनत के नजदीक आते जा रहे थे। तीसरा आतंकवादी दौड़ता हुआ आ रहा था। अच्छा निशाना था और भुवन ने अपनी रायफल का निशाना उसकी तरफ करके ट्रिगर दबा दिया। तीसरे का भी भेजा उड़ गया।

किन्तु।।।।। किन्तु वो दूसरा आतंकवादी बैठे – बैठे और आखिरी की कुछ दुरी लेटे – लेटे पार करते हुए ज़ीनत के नजदीक पहुँच ही गया। उसने ज़ीनत के सिर पर अपनी रायफल तान दी। बाकी दो आतंकवादी भी इधर – उधर से निकलकर उन दोनों के नजदीक आ गए और रायफल तानकर ज़ीनत को गोल घेरे में ले लिया। वे लोग वहाँ से दूसरी तरफ चलने लगे। युद्धस्थल से लेकर नई दिल्ली तक सबको साँप सूंघ गया, सन्नाटा पसर गया। दूसरी ओर कहीं पर पटाखों की आवाज गूंजने लगी। प्लान बी के तहत लेफ्टिनेंट भुवन चाहते तो अभी भी एक बार में एक आतंकवादी को गोली मार सकते थे। ऐसे में बाकी दो आतंकवादी ज़ीनत को गोली मार देते। चूँकि चारों तरफ से सेना का घेरा था, तो फिर बाकी बचे दो आतंकवादियों को सेना मार देती। फिर भी ज़ीनत को बचाने की कोशिश तो करनी ही थी।

लेफ्टिनेंट भुवन ने अपनी तरफ की टुकड़ी को गोलीबारी रोकने का आदेश दिया। विपरीत दिशा में स्थित टुकड़ी को उन्होंने ज़मीन पर गोली चलाने का आदेश दिया। यानी मारेंगे भी नहीं और जाने भी नहीं देंगे। भुवन का उद्देश्य उन सबको अलग – अलग करने का था। उधर की दिशा से चली गोलियों में से एक गोली अचानक ही एक आतंकवादी के पैर में लगी। वो वहीँ गिर पड़ा और घायल हो गया। बाकी दो को समझ ही नहीं आया कि क्या करें? ज़ीनत को गोली मारने के बाद तो मरना ही है। किन्तु जिन्दा रखें तो भाग निकलने की कुछ उम्मीद है। वो दोनों, उस  घायल आतंकवादी को वहीँ छोड़कर आगे बढ़ने लगे। नीचे गिरे हुए घायल आतंकवादी के हाथ में अभी भी रायफल थी। उसने रायफल की बची हुई गोलियां अपने दूसरे साथी पर चला दी। दूसरा वाला वहीँ ढेर हो गया। पहले वाले आतंकवादी ने अपनी जान बचाने के लिए उस घायल आतंकवादी को खुद की रायफल से भुन दिया। उसको ये समझ थी कि अगर उसने ज़ीनत को गोली मारी तो भारतीय सेना भी उसका काम तमाम कर देगी। उसने ज़ीनत को कुछ भी नहीं होने दिया और वो उसके भरोसे ही सुरक्षित निकलने की उम्मीद में आगे बढ़ने लगा।

लेफ्टिनेंट भुवन ने सभी टुकड़ियों को गोलीबारी रोकने का आदेश दिया। वही ‘शोले’ और उसके शोले, वही पोज़ीशन और ध्यान मुद्रा। ट्रिगर पर दबाव पड़ने के साथ ही गोली चल गई। सीधी एक बचे हुए आतंकवादी के भेजे को उड़ाते हुए निकल गई। उसका गोली से फटा हुआ चेहरा ज़ीनत को ऊपर से नीचे तक खून में नहला गया। ये दृश्य देखकर वह बेहोश हो गई। लेफ्टिनेंट भुवन ने सभी टुकड़ियों को धीरे – धीरे आगे बढ़ने का निर्देश दिया। कोई अन्य जिन्दा आतंकवादी भी वहां पर हो सकता था। उनकी टुकड़ी सबसे आगे रहते हुए कुछ देर में घटना स्थल पर पहुँच गई। ज़ीनत बेहोश पड़ी थी। भुवन ने पानी बुलवाकर उसके चेहरे पर छींटे मारे। इस बीच एक जवान ने ज़ीनत के शरीर से रक्त और मांस के टुकड़े साफ़ कर दिए। कुछ देर के प्रयासों के पश्चात् ज़ीनत को होश आया और वो जोर से चीख पड़ी।

भुवन ने धीरे से कहा – बहन ज़ीनत, तुम सुरक्षित हो। आश्चर्यमिश्रित भावों से ज़ीनत ने भुवन की तरफ देखा। उसे लगा जैसे कि उसका खोया हुआ भाई मिल गया है। ईश्वर ने भाई से मिलवाया तो वो भी इन कश्मीर की वादियों में। अधिकतर सैनिकों के हाथों पर उनकी बहनों द्वारा भेजी गई राखियाँ बंधी हुई थी। ज़ीनत की आँखों से अश्रुधारा बह निकली। उसके मन के भावों को समझकर एक सैनिक ने जेब से राखी निकालकर ज़ीनत की और बढ़ा दी। बड़े स्नेह के साथ उसने कांपते हाथों से भुवन की कलाई पर रक्षा सूत्र बांध दिया। वादी में चारों तरफ हर्षोल्लास की ध्वनि गूंजने लगी। नियति की करनी देखो। अर्जुन को धनुर्विद्या से पत्नी के रूप में द्रौपदी मिली और भुवन को निशानेबाजी से बहन के रूप में ज़ीनत मिली।

कश्मीर से नई दिल्ली होते हुए कन्याकुमारी तक और अटक से कटक तक, चारों ओर ख़ुशी की लहर दौड़ गई। सभी ओर पटाखे गूंजने लगे। दूसरी तरफ, जहाँ पर थोड़ी देर पहले पटाखे गूंज रहे थे वहां पर सन्नाटा पसर गया। लेफ्टिनेंट भुवन को भारत सरकार ने विशेष सम्मान दिया। सुरक्षित लौट आने के कारण ज़ीनत को भी बधाइयों के ढेर लग गए। भारतीय सेना द्वारा हमेशा के लिए भुवन को रक्षाबंधन पर विशेष अवकाश ज़ीनत को राखी बाँधने के लिए दिया गया। भाई – बहन के इस नए रिश्ते ने बहुत प्रसिद्धी पाई।

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