‘इस बार तो मैं किसी की नहीं सुनूंगी। जाऊँगी ही जाऊँगी। इतने साल हो गए, याद ही नहीं कब सारी बहनें एक साथ बैठी थीं। स्नेहल का ब्याह हो गया, साहिल अमेरिका चला गया, मेरे पास तो कोई बचा ही नहीं। शिव… एक-एक करके सभी मौसियों को फ़ोन लगा कर दे तो।’ बबीता ने कुछ इसी तरह से पूरा आसमान सिर पर उठा लिया था। घर की बाइयाँ और नौकर-चाकर भाभीजी के इस स्वभाव से अच्छी तरह परिचित थे। थोड़ी देर चिल्लाएँगी, मन हल्का करके चुप हो जाएँगी।
शिव ने सबसे पहले जयपुर फ़ोन लगाकर भाभीजी को दिया।
‘कऊ, अगले हफ्ते 10 तारीख को हम सब बहनें खरगोन में इकट्ठी हो रही हैं। तू इंदौर होकर जाए तो मेरे साथ चलना। नहीं तो मानपुर फाटे से सीधी चली जाना।’ एक आदेशात्मक लह्जे में बबीता बोली।
‘पण जीजी, बात कई है? ना वार ना त्त्योहार।’ कोयल ने पूछा
‘कुछ नहीं रे, साल पे साल निकल गया, मिलनों ही नहीं होए, छोर-छोरी भी कने नहीं हैं, घर काटवा दौड़े। ई लिए ही, प्रोग्राम बना लियो, मम्मी-बाऊजी से भी मिल लेंगा।’ बबीता ने जवाब दिया।
‘जीजी, यो तो अच्छो करयो, मानसी का ब्याव के बाद मोनू भी जॉब करवा बंगलोर चली गई, और तन्नु पिलानी में पढ़ी रियो है। मैं भी अकेली–अकेली थकवा लग गई हूँ। ये आएगा, तो पूछकर बताऊँगी। वैसे तू तो मान ही ले। इंदौर आई के साथ चलान्गा, 10 तारीख ने।’
शिव ने अगला फ़ोन हरदा लगा दिया।
‘मैना, अपन सब बहनें अगले सप्ताह की 10 तारीख को खरगोन में इकट्ठी हो रही हैं। अभी से पेटी जमा ले।’
‘जीजी, कोई कार्यक्रम है कंई?’ मैना ने पूछा।
‘नहीं कोई कार्यक्रम नहीं है। मम्मी-बाऊजी से मिले बहुत दिन हो गए, तो चलना है।’
‘ठीक है जीजी, 9 तारीख को ही पहुँच जाऊँगी। तू बोले तो इनको भी साथ ले आऊँ।’
‘नहीं–नहीं, सिर्फ बहनें मिल रही हैं।’
‘ठीक है’ मैना ने जवाब दिया।
शिव ने अगला फ़ोन खंडवा लगाकर दिया। ‘मालिनी, हम सब बहनें अगले सप्ताह की 10 तारीख को खरगोन में इकट्ठी हो रही हैं। अभी से प्रोग्राम बना ले।’
अरे जीजी, मैं तो यहीं पर आई हुई हूँ।’
‘अच्छा, तो फिर थोड़े और दिन वहीं पर रुक जा। हम सब 10 तारीख को वहीं पर आ रहे हैं।’
‘ठीक है जीजी, यहीं रुक जाऊँगी’ मालिनी बोली।
10 तारीख आ गई। जयपुर से कोयल आई और बबीता के साथ खरगोन चली गई। मैना और मालिनी पहले से ही वहाँ पहुँच गई थी। भाई–भोजाई और सारी बहनें, साथ में मम्मी-बाऊजी। बच्चे तो सिर्फ मैना और मालिनी के ही थे। पहले जैसी खूब धमा-चौकड़ी नहीं थी। सिर्फ बहनें और बातें थी। देर रात तक खूब मिले, बतियाए, खूब टापरे गिने। क्या इंदौर, क्या खरगोन और क्या ओझर, खूब बधिया उधेड़ी।
अगले दिन देर तक किसी के भी उठने के पते नहीं थे। भर गर्मी और ठन्डेगार एयर-कंडीशनर में सारी बहनें और बच्चे, गधे–घोड़े बेचकर सो रहे थे। भाभी जरूर उठ गई थी। नौकरों से घर की साफ़-सफाई और नाश्ते की तैयारी करवा रही थी। कुछ देर बाद एक-एक करके सब लोग उठे, तैयार हुए और ड्राइंग रूम में इकट्ठे हो गए। वही माहौल, बच्चों की वही मस्ती, बातचीत के नए-नए विषय निकल आए थे। बबीता बोली – मुकेश, ओझर चलें क्या? टाकली के खेत भी हो आएँगे, शिव टेकड़ी में भगवान के दर्शन भी कर लेंगे। बबीता ने तो मानो सभी के मन की बात छीन ली, सभी तुरंत तैयार हो गए।
सबसे पहले, सभी लोग ओझर पहुँचे। ओटले पर खड़ा मनीष अपनी बहनों का इंतज़ार पत्नी और बच्चों के साथ कर रहा था। वर्षों बाद अपनी जन्मस्थली, बचपन बिताया हुआ घर देखकर सबकी आँखे भर आई। ढेर सारी यादें ताजा हो गई। अचानक, हाँ अचानक ही पीछे के कमरे से सबसे पहले बल्ली, फिर सोनिया, फिर चीकू और फिर दुर्गा निकली। ये क्या माज़रा है? एक साथ बचपन गुजारने वाली नौ बहनें जो वर्षों तक एक दूसरे से कटी-कटी रही, उनका पुनर्मिलन हो रहा था। माहौल रुदाली हो गया। सारी बहनों ने एक दूसरे से मिलकर, आँसू बहाकर गिले-शिकवे दूर किए। पर…ये सब हुआ कैसे? पता चला कि पूरी जमावट जीजी के द्वारा की गई थी। दोनों भाई और जीजी को छोड़कर किसी को भी कानों-कान ख़बर नहीं थी। अड़ोसी-पड़ोसी और दूसरे काका के परिवार के ढेर सारे लोग जमा हो गए कि बात क्या है? सुभाष–बसंत की सारी बेटियाँ क्यों आई हुई है? स्थिति स्पष्ट होने पर सभी ने चेन की साँस ली। सभी आगंतुकों के लिए चाय-नाश्ते की व्यवस्था की गई।
उसके बाद तो माहौल उत्सवी हो गया था। सभी बहनें और दोनों भाइयों का पूरा हुजूम चल पड़ा। कभी एक कमरे में तो कभी दूसरे कमरे में। पुरानी यादें ताज़ा करते, खिलखिलाते और एक दूसरे को छेड़ते हुए। नाश्ता, खाना-पीना और हँसी-ठिठोली, कैसे पूरा दिन निकल गया, पता ही नहीं चला।
अगले दिन सुबह ही सभी लोग नदी पर नहाने के लिए निकल पड़े। सारी बहनें खाते-पीते घर की बहुएँ थी। दुल्हन बनकर विदा होने से लेकर आज तक में लगभग ढाई से तीन गुना वजन का फर्क आ गया था। खूब-खूब मस्ती की। एक बार जहाँ धम्म से बैठी तो हिलने का नाम नहीं। भूख भी लग आई थी। टाकली के खेत पर खाने की व्यवस्था की गई थी। डाकू मोहरसिंह का पोता आज भी परिवार के साथ वहीं पर रह रहा था। अच्छी आव-भगत के साथ सभी ने दाल, बाटी, चूरमा, कढ़ी, हरी और लस्सन की चटनी और कटे प्याज़ के साथ खाने का आनंद लिया। केरी का पानी तेज हरी मिर्च और सादी नुक्ती के साथ जबरदस्त तृप्ति दे गया। गर्मी का मौसम था। मनीष मामा ने वहीं पर गाव-तकियों के साथ कूलर की व्यवस्था कर दी थी। सब ने एक झपकी भी ले ली। शाम होते-होते शिव टेकडी मंदिर के लिए निकल पड़े। सभी ने एक ही कामना की कि ये भाईचारा सदा बना रहे। साल में कम से कम एक बार तो यहाँ दो-तीन दिन के लिए मिलना जरूर हो। देवादास पण्डितजी ने सबको दिल से आशीर्वाद दिया।
अगले दिन सुबह विदाई हुई। बबीता, कोयल, बल्ली और सोनिया ओझर से ही इंदौर के लिए निकल गई। मैना और मालिनी खरगोन होते हुए हरदा, खंडवा के लिए निकली। चीकू सेंधवा चली गई और दुर्गा का एक–दो दिन ओझर में ही रुकने का कार्यक्रम था। बबीता की मेहनत रंग लाई। घर-परिवार के मतभेद दूर होकर परिवारों का मिलन भी हो गया।