दिसम्बर का महीना और कड़ाकेदार ठण्ड पड़ रही थी। सुबह से ही घर में खूब चहल-पहल थी। आज दादाजी और दादीजी की शादी की 50वीं वर्षगाँठ थी। बहुत समय बाद हमारी पुश्तैनी कोठी में पूरा परिवार इकठ्ठा हुआ था। भुआजी तो 7 दिन पहले ही आ गई थीं। पापा, मम्मी, भैया और मैं लन्दन से 3 दिन पहले आए थे। पिछले दो माह से कोठी को नए सिरे से सजाने-संवारने का कार्य चल रहा था। पुरानी रिपेयरिंग, रंग-रोगन, नए परदे और बगीचे की नई सजावट ये सब काम दादाजी के समय से काम कर रहे शिव भैया के निर्देशन में हो रहे थे। हमारी ये कोठी लगभग 45 साल पुरानी होने के बावजूद ऐसी लग रही थी कि मानो अभी नई ही बनी हो।
सुबह से ही दादाजी-दादीजी से जुड़े लोगों का आना चालू हो गया था। पूरा घर फूलों की खुशबू से महक उठा था। दादाजी को देखकर समझ में नहीं आता था कि शादी की 50वीं वर्षगाँठ है या जन्मदिन की। और दादीजी तो ‘माशा-अल्लाह’ आज भी मम्मी की उम्र की ही दिखती हैं। आने वाले सभी व्यक्तियों का स्वागत पापा – मम्मी, भुआजी – फूफाजी स्वयं करते हुए पुरानी यादें ताजा कर रहे थे। दादीजी तो बस अपनी बहनों के साथ ही बातचीत में मशगूल थीं। माहौल जबरदस्त और आत्मीय था। कॉलोनी वालों, नजदीकी दोस्तों और रिश्तेदारों के लिए दिन में भी घर पर एक पार्टी रखी थी। इस पार्टी का जिम्मा भुआजी ने लिया था और दुनियाभर के व्यंजन खुद ने चुन-चुनकर बनवाए थे। फ्रांस का सिम्फोनी प्रस्तुत करने वाला बैंड भी बुलवाया गया था जो अपने धीमे संगीत से उत्साहवर्धन कर रहा था।
ख़ुशी के इस मौके पर शाम को पापा ने एक बड़ी पार्टी रखी थी। दादाजी के बचपन के दोस्त, ग्रुप के मुख्यालय का स्टाफ – भले ही अभी साथ में काम कर रहा हो, अन्य कंपनी में हो या रिटायर हो गया हो, सभी निमंत्रित थे। जिस भी कंपनी से दादाजी जुड़े, उनके मालिक लोग या उनके वरिष्ठ प्रतिनिधि भी आमंत्रित किए गए थे। पापा के दुनियाभर में फैले विशाल व्यापार को सँभालने वाले दादाजी के समय के सभी वरिष्ठ साथी भी आए थे। पुराने परिचित, यार-दोस्त, दूर-दूर के रिश्तेदार, समाज के लोग, विभिन्न संस्थाओं के प्रतिनिधि, पक्ष-विपक्ष सभी राजनीतिक दलों के वरिष्ठ पदाधिकारी और बहुत से लोगों को निमंत्रित किया गया था। दादाजी ने मेहरून रंग की गोल्डन एम्ब्रायडरी की हुई शेरवानी पहनी थी। दादीजी ने सुर्ख लाल रंग की चाइना सिल्क की गोल्डन एम्ब्रायडरी के साथ चिकन वर्क के फूल बनी हुई साड़ी पहनी थी। पापा का इंग्लिश सूट और मम्मी का गाउन बहुत ही खिल रहा था। भुआजी और फूफाजी ने खुद के डिजाइन किए हुए मैचिंग के अनोखे और नायाब वस्त्र पहने थे।
जहाँ पार्टी थी उसके मालिक अर्नव पापा के बचपन का दोस्त है। सजावट, व्यंजन का मेनू या अन्य कोई सुविधा; पार्टी से सम्बंधित सभी कार्य अर्नव चाचा के निर्देशन में ही हो रहे थे। पार्टी समय पर शुरू हो गई थी। आमंत्रित भी आने लगे थे। फ्रांस के सिम्फोनी बजाने वाले बैंड की स्वर लहरियों ने माहौल को जबरदस्त खुशनुमा बना दिया था। फूलों की सजावट का काम थाईलैंड की एक कंपनी ने किया था। दादाजी और दादीजी के लिए एक लम्बा सा बहुत खूबसूरत फूलों का स्टेज बनाया गया था। स्टेज पर उनके साथ पापा – मम्मी, भुआजी और फूफाजी भी थे। आने वालों का ताँता लगा हुआ था। पुरानी यादें ताज़ा हो रही थी। इतने पुराने साथियों और दोस्तों को देखकर दादाजी की आँखों में पानी भर आया था। शहनाई वादन और मंत्रोच्चार के साथ वरमाला का एक छोटा सा कार्यक्रम भी सम्पन्न हुआ। ढेर सारी आतिशबाजी से आसमान जगमगा उठा था।
बहुत अच्छे से पार्टी संपन्न हुई। रात लगभग 12 – 12.15 बजे उत्साह से परिपूर्ण हम सब घर आ गए थे। किसी को भी थकान महसूस नहीं हो रही थी। तभी पापा ने बोला कि सिर्फ परिवार वालों की भी एक पार्टी हो जाए। घर के पुराने कर्मचारियों की मदद से पापा ने इसके लिए भी पहले से ही तैयारी की हुई थी। घर के बगीचे के बीच में एक बड़ा सा अलाव जलाया गया। घास पर ही गद्दे बिछाकर गाव-तकिए लगा दिए थे। अनौपचारिक माहौल में पुरानी यादें ताज़ा करने का मकसद था। बेक ग्राउंड में पुराने जमाने के ग्रामोफ़ोन पर दादाजी और दादीजी के जमाने के गाने बज रहे थे। दादाजी ने सबसे पहले घर-परिवार से सम्बंधित यादें बिखेरी। उसी में उन्होंने इस कोठी से सम्बंधित संघर्षों को भी बताया। हालाँकि ये सब पापा और भुआजी के सामने ही हुआ था पर हमारे लिए ये नई जानकारी थी। फिर उन्होंने दादीजी और भुआजी के साथ मिलकर किए गए व्यापार से सम्बंधित संघर्षों की दास्तान छेड़ी। माहौल रुदाली हो गया था। दादीजी और भुआजी की आँखों से तो आँसू ही झरने लगे थे। ये स्वाभाविक था और किसी ने भी किसी को रोकने – टोकने की कोशिश नहीं की। ये ही सच्चाई थी जो आँसुओ के माध्यम से टपक रही थी। परिस्थितियों के भारीपन को भाँपते हुए फूफाजी ने दादाजी को उनका सबसे मन-पसंद गाना सुनाने को कहा।
दादाजी ने धीरे से तान छेड़ी – ऐ मेरी जोहर जबी, तुझे मालूम नहीं, तू अभी तक है हँसी और मैं जवां, तुझ पे कुर्बान मेरी जान, मेरी जान। ये सुनते ही दादीजी की तो जोर से रुलाई फूट पड़ी। उन्होंने दादाजी के घुटनों पर सर रख दिया। दादाजी ने दादीजी को तुरंत आगोश में भर लिया।
अचानक दादाजी बोले – अलाव की अग्नि को साक्षी मानकर हम दोनों अभी इसी वक्त पुनः फेरे लेंगे। आधी रात को ही भुवनेश पंडितजी, ढोली और गीतवाली बाई को बुलवाया गया। पंडितजी के मंत्रोच्चार, ढोल की तरंग और बाई के गीतों के साथ अग्नि को साक्षी करके दादाजी और दादीजी ने पुनः सात फेरे लिए। माहौल अकल्पनीय था।