Doctor Ajay Goyal

अनूठा संयोग

कहते हैं कि पूत के पाँव पालने में ही दिख जाते हैं – कुछ ऐसा ही रवि के साथ हुआ. जन्म के तुरंत बाद नर्स रवि को गोद में लेकर बाहर आई और उसके पापा के हाथ में देकर बोली – ‘बधाई हो, बेटा हुआ है’. पापा ने ध्यान से देखा और उसकी दादी को बोले – ‘माँ, देखो तो इसका ललाट कैसा चमक रहा है. कैसे आँखे फाड़ – फाड़ कर चारों तरफ देख रहा है.’ दादी ने तुरंत रवि को पापा की गोद से ले लिया और पापा को डपटने के अंदाज में बोली – ‘ शशश ….. चुप कर, ऐसा नहीं बोलते हैं.’  उन्होंने तुरंत अपनी आँखों में लगा हुआ काजल उंगली की किनोर पर लेकर रवि के माथे पर लगा दिया और कहा – ‘ हाँ, अब ठीक है.’

समय के गुजरने के साथ ही रवि बड़ा होने लगा. पापा केंद्रीय सरकार की सेवा में बहुत ऊँचे पद पर थे. पढ़ाई – लिखाई सर्वश्रेष्ठ स्कूल में हो रही थी. शुरू से ही होनहार होने के कारण सभी कक्षाओं में अधिकतम अंक प्राप्त होते थे रवि को. गायन – वादन के शौक के साथ ही अन्य विषयों में भी उसकी रूचि थी. ओजस्वी वक्ता के तौर पर रवि की स्कूल में खूब ख्याति थी. इन्हीं सब कारणों से वो शिक्षकों का चहेता था. हायर सेकेंडरी की पढाई के लिए रवि ने डटकर मेहनत की – क्या रात और क्या दिन, सब भूल गया. उसी के अनुरूप नतीजा भी आया. उसने पूरे दिल्ली प्रदेश में सर्वप्रथम स्थान प्राप्त किया था. उसे दिल्ली के राज्यपाल ने विशेष पुरस्कार प्रदान किया. इससे उसके हौसले और लक्ष्य नई ऊचाइयाँ छूने लगे. 

रवि के ग्रेजुएशन के नतीजों ने दिल्ली विश्वविद्यालय में नया रिकॉर्ड बना दिया. दुगुनी मेहनत और उत्साह के साथ वो आई.ए.एस. की तैयारी में लग गया. इस समय रवि सिर्फ 19 वर्ष का था. इस परीक्षा में हिस्सा लेने के लिए 21 वर्ष की उम्र होना जरुरी होती है. एक परिचित ने रवि को समझाया कि कुछ लम्बे समय तक इस परीक्षा की तैयारी करने से सफलता पक्की हो जाती है. इसी को आधार बनाकर उसने प्राथमिक और मुख्य परीक्षा के लिए 23 वर्ष की उम्र का लक्ष्य रखा. आगे पूरे चार वर्ष का समय था. रवि ने ठान लिया कि आई.ए.एस. की परीक्षा में बैठकर प्रथम सौ स्थानों में चुनकर आना ही है. उसने बी. बी. ए. का भी फॉर्म भर दिया. बी. बी. ए. की पढ़ाई के साथ ही आई.ए.एस. की कोचिंग भी लगा ली. दो साल में इतनी कोचिंग ले ली कि नया कुछ बचता ही नहीं था. कोचिंग के संचालक के सुझाव पर रवि ने उन्हीं के संस्थान में अपने से बड़ी उम्र के दूसरे छात्रों को पढ़ाना शुरु कर दिया. इससे रवि को दूसरे परीक्षार्थियों के पढने के तरीके पता चलने के साथ ही उसकी स्वयं की परीक्षा की तैयारी भी होने लगी.

दूसरी तरफ, मेरठ की रहने वाली, मम्मी – पापा की लाड़ली शैली बचपन से ही पढ़ाई में होशियार थी. शतरंज उसका सबसे प्रिय खेल था और इस खेल में उसके सबसे प्रबल प्रतिद्वन्दी उसी की स्कूल के प्रिंसिपल थे. दोनों ही एक दूसरे बढ़कर थे. इसके साथ ही वो स्कूल की सबसे बेहतरीन वक्ता थी. वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में प्रथम आना उसका शगल था. यानी वो पूर्णतया बेहतरीन प्रतिभाशाली लड़की थी. शैली की प्रतिभा को देखते हुए प्रिंसिपल महोदय ने उसके लिए आई.ए.एस. का लक्ष्य निर्धारित कर दिया और स्कूल स्तर पर ही उसने इसकी तैयारियां शुरू कर दी थी.

उत्तर प्रदेश के मेरठ डिवीज़न में स्कूल स्तर पर टॉप करने के बाद वो दिल्ली यूनिवर्सिटी से चार साल का बी.बी.ए. का कोर्से करने के लिए दिल्ली आ गयी. शैली की प्रतिभा को देखते हुए यूनिवर्सिटी ने उसे विशेष अनुमति के अंतर्गत तीन साल में ही कोर्स ख़तम करने की इजाजत दे दी. जबरदस्त प्रदर्शन करते हुए उसने यहाँ भी सफलता के परचम लहरा दिए. उसकी योग्यता को देखते हुए वहाँ पर ही सहायक अध्यापक (टीचिंग असिस्टेंट) की नौकरी दे दी गई. यूनिवर्सिटी के इतिहास में पहली बार इतनी कम उम्र की लड़की को अध्यापन कार्य के लिए रखा गया. मजेदार बात ये थी कि पढने वाले सभी छात्र शैली से बड़ी उम्र के थे. 

शैली का लक्ष्य तो आई.ए.एस. की परीक्षा पास करने का था. इसके लिए उसने एक कोचिंग क्लास में प्रवेश ले लिया. उसका समय भी बहुत अच्छे से सेट हो गया. सुबह यूनिवर्सिटी में बी.बी.ए. की कक्षा लेना और दोपहर में आई.ए.एस. की कोचिंग के लिए जाना. फिर शाम को देर रात तक दोनों विषयों की तैयारियांँ करना. 

यूनिवर्सिटी में सुबह बी.बी.ए. की कक्षा लेने के बाद दोपहर में आई.ए.एस. की कोचिंग के लिए शैली पहली बार इंस्टिट्यूट आई. वहाँ पर उसे एक लड़के ने दूर से हाथ हिलाकर अभिवादन किया. पहले तो समझ में नहीं आया कि यहाँ कौन परिचित आ गया? दिमाग पर जोर दिया तो याद आया कि ये लड़का तो उसकी बी.बी.ए. की कक्षा का छात्र है. उसने सोचा कि शायद वो भी आई.ए.एस. की कोचिंग ले रहा है, इसलिए यहाँ आया है. वो कक्षा में पहुंची तो थोड़ी देर में उसके शिक्षक आए. वह उन्हें देख चौंक गई और मन ही मन बोली – अरे… ये तो वो ही छात्र है जिसे में पढ़ाती हूँ. इसका मतलब तो ये हुआ कि सुबह में इसे पढ़ाउंगी और दोपहर में ये मुझे पढ़ायेगा!

वो सुबह का छात्र या शाम का शिक्षक कोई और नहीं रवि ही था. उसे भी कुछ समझ नहीं आया. वो भी मन ही मन सोचने लगा कि मेरी सुबह की शिक्षिका दोपहर की छात्रा बन गई. कोचिंग क्लास ख़त्म होने के बाद दोनों ने एक दूसरे का परिचय प्राप्त करके अभिवादन किया. इस अनोखे संयोग पर दोनों को बहुत आनंद आया. शैली का शरारती मन जाग उठा. अगले दिन बी.बी.ए. की कक्षा में उसने रवि को लक्ष्य बनाकर पूरी कक्षा को खूब हंँसाया. वो भूल गई कि दोपहर बाद उसे भी रवि की कक्षा में जाना है. दोपहर में रवि ने विपरीत दिशा में चलते हुए पूरी कक्षा से अलग – अलग ढेर सारे सवाल किए. उसने ऐसे सवालों का चयन किया था जो कि मैनेजमेंट से सम्बंधित थे और जिनके जवाब शैली को रटे हुए थे. सभी प्रश्नों का उत्तर अकेली शैली देते हुए कक्षा में छा गई. उसे खूब प्रशंसा और तालियाँ मिली. शैली को कुछ समझ में नहीं आ रहा था कि सुबह की कक्षा का बदला लेने का ये कैसा तरीका है? सम्मान के बोझ तले दबाकर रवि ने उसके प्राण हर लिए. घर आकर वो रात भर सो नहीं पाई.

अगले दिन यूनिवर्सिटी में कक्षा के पहले ही वो क्लास रूम के बाहर रवि से मिली. सजल आँखों से उसने गए कल की उसकी भूमिका के लिए माफ़ी मांगी. दोनों दोस्त बन गए. दिन भर में समय के अनुसार उनकी भूमिकाएँ बदलती रहती. उन दोनों की इन भूमिकाओं की सब तरफ चर्चा होने लगी. इनसे बेखबर दोनों सहयोगी अपने – अपने लक्ष्य को ध्यान में रखते हुए तैयारियांँ करते रहे. एक दूसरे का साथ पाकर उनका आपसी विश्वास और नजदीकियांँ बढ़ने लगी. शनिवार, रविवार एवं अन्य सभी छुट्टी के दिन दोनों का साथ में ही समय गुजरता था. लगभग एक जैसी पारिवारिक पृष्ठभूमि होने के कारण कहीं पर भी कोई विरोध ना था. रवि कई बार शैली के घरवालों से मिल चुका था. शैली का रवि के घर पर भी आना जाना था. इन सबके बावजूद दोनों अपने-अपने लक्ष्य को पाने के प्रति न सिर्फ अडिग थे, बल्कि परिस्थितियों ने उनका उत्साह दुगुना कर दिया था.

एक तरफ तो रवि और शैली का कम उम्र में प्रथम प्रयास दूसरी तरफ उम्र में काफी बड़े, लाखों प्रतिभागी. अपने आपको मानसिक तौर पर तैयार करना और परीक्षा में हिस्सा लेना एक मुश्किल कार्य था. रवि को उसके पापा से विरासत में पाई हुई आध्यात्मिक जीवन जीने की कला ने मानसिक दबाव, कठिनाई या अन्य कोई नकारात्मकता हावी ना होने दी. शैली भी जीवट स्वभाव की थी. यदि हौसले बुलंद हो तो मंजिल को मुकाम बनते देर नहीं लगती है. आई.ए.एस. की प्राथमिक और मुख्य दोनों परीक्षाएं बहुत अच्छे नंबर और ऊँचे स्थान से पास कर ली. साक्षात्कार में अभूतपूर्व प्रदर्शन के पश्चात उन दोनों ने जीवन की सर्वश्रेष्ठ सफलता हासिल की. दोनों ने प्रथम सौ सफल परीक्षार्थियों में स्थान लेकर आई.ए.एस. अवार्ड प्राप्त किया.

इतना सब जानने के बाद भी क्या आप ये जानना चाहतें है कि शैली रवि की जीवन संगिनी बनी या नहीं? इसका उत्तर पाठक स्वयं दें.

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